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________________ अच्छे अवसर द्वार खटखटाते हैं 18 ये तो सोचा ही नहीं हमें यह भ्रम निकाल देना चाहिए कि हम पाप करते रहेंगे और प्रायश्चित करने से भगवान हमारे अपराधों को माफ करते रहेंगे, हमें क्षमा प्रदान करते रहेंगे। प्रायश्चित व आलोचना तो इसलिए किए जाते हैं कि हम अपने दोषों और अपराधों को स्वीकार कर उनकी पुनरावृत्ति न करें। जब तक पुनरावृत्ति होती रहेगी, इनकी तब तक मात्र अपने दोषों के प्रगट करने से प्रयोजन की पूर्ति होना सम्भव नहीं है। ____ जो लोग प्रतिदिन प्रायश्चित करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं और समझ लेते हैं कि हमारे सब पापों का प्रक्षालन हो गया है, वे भ्रम में हैं। उनकी पापमय प्रवृत्ति जहाँ की तहाँ है, बिल्कुल भी नहीं घट रही है। अत: यही मानना न्याय संगत है कि जो भी पाप या अपराध हमने किये हैं या कर रहे हैं, उन्हें कोई भगवान भी माफ नहीं करते, कर भी नहीं सकते। उनका फल तो उन्हें भोगना ही होगा। अन्यथा विश्व की व्यवस्था ही गड़बड़ा जायेगी। ___ हाँ, जबतक परमात्मा हमारे ध्यान में विचरेंगे; तबतक पाँचों पाप, पाँचों इन्द्रियों के विषय एवं राग-द्वेषादि मनोविकार हमारे ध्यान में आ ही नहीं सकेंगे; क्योंकि ध्यान में परमात्मा और पाप एक साथ नहीं ठहरते । देव मन्दिर की मर्यादित सीमा में भी विषय-विषधर प्रवेश नहीं पाते । क्योंकि मन्दिर में भगवान के दर्शन पूजन करते समय क्रोधमान-मायाचारी और लोभ तथा हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने, कुशील आदि पाप करने के प्रसंग ही नहीं होते । अन्य स्थानों में किए पापों से मुक्त होने के लिए ही सब व्यक्ति मन्दिर आते हैं। जो व्यक्ति मन्दिर में पाप करता करता करेगा, उसे कर्मों का वज्र लेना होता है। वह कभी भी दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। इस कारण भक्त के मन में अन्य अज्ञानी जीवों के भी यदि पूजा करते समय कषाय कम हुई तो उतनी देर पापों से निवृत्ति के कारण उन्हें भी यथायोग्य पुण्य की प्राप्ति हो जाती है। यदि किसी के मन में लौकिक कामना से तीव्र कषाय रही तो पूजा जैसे पवित्र कार्य करते हुए भी पापबंध ही होता है; क्योंकि पुण्य-पाप का बंध भी तो शुभ-अशुभ भावों से ही होता है, शारीरिक क्रियाओं से नहीं। पर ध्यान रहे जो शारीरिक क्रिया का पाप करता है, उसके पहले वह पाप उसके मन में पैदा हो जाता है; अत: शारीरिक पाप और क्रोधादि कषाय करनेवाला दण्डित होता ही है। ___ जो भक्त समझदार होते हैं, वे भगवान की भक्ति-पूजा के साथ उनके बताये मार्ग पर चलते हैं और एक न एक दिन स्वयं भगवान की बाजू में विराजमान हो जाते हैं। इसके विपरीत जो भगवान के भरोसे ही भवकूप में पड़े-पड़े उन्हें केवल पुकारा ही पुकारा करते हैं, उनके बताये मार्ग को सुनने-समझने की कोशिश ही नहीं करते; वे भवकूप से नहीं निकल पाते, संसार सागर से पार नहीं हो पाते। भाई ! भगवान की पूजा-भक्ति के माध्यम से अपने को पहचान कर स्वयं भक्त से भगवान की श्रेणी में पहुँच जाना ही पूजा का मूलभूत प्रयोजन है।" शास्त्रीजी द्वारा ऐसे सरल-सुबोध शैली में किए समाधान से ज्ञानेश तो हर्षित हुआ ही, अन्य लोग भी लाभान्वित हुये। ___ शास्त्रीजी की विद्वता और प्रवचन से प्रभावित होकर ज्ञानेश ने शास्त्रीजी के सान्निध्य में रहकर उनके द्वारा प्रवाहित ज्ञान-गंगा में आकंठ निमग्न होकर ज्ञानामृत का पान किया। आध्यात्मिक शास्त्रों का गहन अध्ययन, मनन, चिन्तन करके ज्ञानार्जन किया और ज्ञान-गोष्ठी में शंका-समाधान द्वारा अपने ज्ञान का परिमार्जन करके अपनी श्रद्धा एवं
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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