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________________ ३१ 17 ये तो सोचा ही नहीं नहीं है। पुण्य-पाप का बन्ध तो अपनी मान्यता और भावों या परिणामों पर ही निर्भर करता है। यदि हम लौकिक फल की वांछा रखते हैं, निष्काम कर्म नहीं करते तो पुण्य की प्राप्ति कैसे होगी ? फिर भी तुम्हें कुछ लाभ तो हुआ ही है। ____ अच्छा तुम ही बताओ ? यदि तुम बचपन से स्वाध्यायी नहीं रहे होते तो क्या तुम्हारे मन में ऐसे सद्विचार आते? यदि परोपकार नहीं करते तो किसी पारिवारिक गोरख धंधे में उलझे होते। निश्चित ही किसी न किसी पापप्रवृत्ति में ही पड़े होते, कोई न कोई राग-द्वेष वर्द्धक विकथा ही करते होते। जितना समय परोपकार में, परहित में गया, उतनी देर विषय-कषाय रूप पापों से तो बचे ही रहे न ? हानि क्या हुई ? पर लौकिक कामनाओं की पूर्ति हेतु अहिंसा एवं सत्य आदि का आचरण तो आवश्यक है ही, धनार्जन भी ऐसे पवित्र भावों से स्वत: ही होता है। पाप कार्यों से समुद्र में फैंके मणि की भाँति ऐसे सु-अवसर दुर्लभ हो जाते हैं, जिसमें सत्य की शोध की जा सकती है। ज्ञानेश ने हार्दिक प्रसन्नता प्रगट करते हुए शास्त्री जी से कहा - "मेरी समझ में यह तो आ गया कि नि:स्वार्थभाव से लौकिक विषयों की कामना किए बिना प्रतिदिन परमात्मा की पूजा और परोपकार करना सर्वथा निरर्थक नहीं है। पापभावों से तो बचे ही रहते हैं; तथा धर्म के बारे में विशेष जानने की जिज्ञासा भी जगती ही है। नि:संदेह इतना लाभ तो मुझे भी हुआ ही है।" दिनेश शास्त्री ने समझाया - "भाई! सचमुच तो जगत में जो भी सुख-दुःख होता है, वह सब अपने-अपने पुण्य-पाप के फल के अनुसार ही होता है, अपनी-अपनी करनी के अनुसार ही होता है। हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध महाकवि तुलसीदास ने भी इसी बात का समर्थन करते हुए लिखा है कि - अच्छे अवसर द्वार खटखटाते हैं 'कर्मप्रधान विश्व करि राखा, जो जस करै सो फल चाखा।' इस सन्दर्भ में जैनाचार्य अमितगति के सामायिक पाठ का हिन्दी अनुवाद भी दृष्टव्य है - 'स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते। करे आप फल देय अन्य तो स्वयं किये निष्फल होते ।।' दौड़े-दौड़े चले आनेवाले देवी-देवता भी पुण्य के प्रताप से ही आते हैं। पापोदय में तो देवी-देवता भी मदद नहीं करते। वस्तुत: परमात्मा की पूजा-भक्ति भी किसी को प्रसन्न करने और लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिए नहीं की जाती । व्यक्ति का जिसके गुणों में अनुराग हो जाता है, उसके प्रति भक्ति की भावना स्वयं उमड़ती है। आज तो लोगों की यह हालत है कि दिन-रात घोर पाप करते रहते हैं, और प्रतिदिन सुबह-शाम मन्दिर में बेझिझक भगवान के सामने हाथ फैलाकर हाव-भाव के साथ अपने किए पाप को डिक्लेयर करते हुए, क्षमा याचना की प्रार्थना करते हैं और मान लेते हैं कि भगवान ने हमारे सब पाप माफ कर दिए। क्या ऐसा करने से सचमुच पाप कट जाते हैं ? नहीं, कभी नहीं, पापों का फल तो भोगना ही पड़ेगा। ___ अपनी क्षमायाचना के प्रदर्शन में हम मन्दिर में जाकर भगवान के सामने हल्फिया बयान देते हैं, यदि यही बयान न्यायालय में न्यायाधीश के सामने दिये जायें तो क्या न्याय के सिंहासन पर विराजे न्यायाधीश द्वारा हम तुरंत जेल में अन्दर नहीं कर दिये जायेंगे? अन्याय तो प्रकृति में भी नहीं है, तभी तो हम संसार की जैल में जन्म-मरण का दण्ड भुगत रहे हैं। पापों का फल भोगे बिना तथा अपराधवृत्ति छोड़े बिना इस दुःख से छुटकारा पाने का अन्य कोई उपाय नहीं है।
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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