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ये तो सोचा ही नहीं
ज्ञानेश को भी यही अभीष्ट था। वह भी यही चाहता था, उसका सबसे पहला स्वप्न यही था कि मुझे ऐसी सहधर्मिणी मिले जो मुझ अधिक मेरे माता-पिता की सुख-सुविधा का ध्यान रखे। अपनी सेवा से, मधुर वाणी से और सद्व्यवहार से उनके सम्मान को सुरक्षित रखते हुए उनके सुख-दुःख में सहभागी बने ।
वह अपनी इस भावना को, अपने इस स्वप्न को साकार होता देखकर इतना अधिक खुश था, जिसे शब्दों में बाँधना संभव नहीं है। इससे उसके दाम्पत्य प्रेम में तो चार चाँद ही लग गये। ज्ञानेश के मन में भी अपने सास-ससुर (सुनीता के माता-पिता) के सुख-दुःख में सहभागी बनने की भावना बलवती हो गई।
ज्ञानेश ने सुनीता से कहा- “क्यों न तुम्हारे मम्मी-पापा को भी यहीं बुला लें। दो की जगह चारों की सेवा साथ-साथ होती रहेगी। वे विचारे वहाँ इस उम्र में अकेले परेशान हो रहे होंगे। सेवा के लिए सर्वेन्ट हैं, यह ठीक है; पर सर्वेन्ट तो आखिर सर्वेन्ट ही होते हैं। उनसे काम कराना भी तो कोई कम सिरदर्द का काम नहीं है। हम लोग स्वयं उनकी सेवा में रहेंगे, उन्हें अपनी देख-रेख में रखेंगे तो हमें तो सन्तोष रहेगा ही; उन्हें भी आराम मिलेगा। उनके लिए अलग से नौकर रख लेंगे । इससे मम्मी-पापा को कोई टेन्शन नहीं रहेगी। यहाँ उन्हें धार्मिक वातावरण भी सहज में ही मिल जायेगा ।
मेरी तो यह इच्छा है कि तुम आज ही उन्हें फोन करो, फिर जब वे कहेंगे, मैं जाकर ले आऊँगा। इस माह में अपने तीन बेडरूम वाले नये फ्लैट की चाबी भी मिल जायेगी। उसमें उन्हें अपनी पसंद के अनुकूल सुख-सुविधायें भी जुट ही जायेंगी। "
ज्ञानेश के ऐसे भद्र और उदार विचार सुनकर सुनीता भी गद्गद् हो गई; क्योंकि अपने माता-पिता की सुख-सुविधा का ख्याल तो अच्छे लड़के रखते; के सुख-सुविधा के बारे में ऐसे विचार ज्ञानेश जैसे विरले ही होते हैं।
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चार
अच्छे अवसर द्वार खटखटाते आते हैं
अच्छी वस्तु घर आती है और बुरी वस्तु को लेने जाना पड़ता है । दूध घर आता है, शराब को लेने जाना पड़ता है। अच्छे अवसर घर का द्वार खटखटाते आते है, "कहते हैं कि जब किसी भी भले काम करने की स्वयं की तैयारी होती है तो साधनों की भी कमी नहीं रहती । जब अपनी भली होनहार होती है तो अच्छे निमित्त कारण तो आसमान से उतर आते हैं ।
ज्ञानेश के साथ भी यही हुआ। एक वयोवृद्ध विद्वान् श्री दिनेश शास्त्री कहीं जा रहे थे कि ज्ञानेश के नगर के निकट ही उनकी गाड़ी अचानक खराब हो गई । उन्हें वहाँ रुकना पड़ा। ज्ञानेश एवं नगरवासियों के निवेदन पर दिनेश शास्त्री के प्रवचन का लाभ तो सबको मिला ही, ज्ञानेश ने भी अपने मन में बहुत दिनों से संजोये प्रश्न पूछ लिये ।
ज्ञानेश का प्रथम प्रश्न था - बहुत बार ऐसा होता है कि न्यायपूर्वक सही काम करते हुए भी सफलता नहीं मिलती !
शास्त्रीजी ने कहा - "यह सच है कि श्रम करते हुए भी यदि पुण्योदय न हो, भाग्य साथ न दें तो सफलता नहीं मिलती, पर गीता में भी यही कहा है - कर्मण्ये वाधिकारः मा फलेषु कदाचनः । आप काम करते जाओ फल की वांछा मत करो। वह समय पर स्वतः मिलेगा।
किसी भी काम का फल हमें अपने परिणामों (भावों) के अनुसार ही मिलता है न ? अत: हमें अपने परिणामों (भावों) को पहचानना होगा। भाव तीन तरह के होते हैं - शुभ, अशुभ और शुद्ध । हमें देखना यह है कि जब हम कोई भी काम करते हैं; उस समय हमारे परिणाम (भाव) कैसे होते हैं ? वस्तुतः शरीर की क्रिया का तो कुछ फल