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सच्ची प्रीति पैसे की मुँहताज नहीं होती
ये तो सोचा ही नहीं ध्रुव फण्ड का सदुपयोग करते रहेंगे, ट्रस्ट का अच्छा काम देखकर जनसहयोग से ध्रुवफण्ड भी बढ़ता रहेगा। इसतरह आपकी गाढ़ी कमाई । का शताब्दियों तक सदुपयोग तो होता ही रहेगा, आपका नाम भी अमर हो जायेगा।"
ज्ञानेश की ट्रस्ट सम्बन्धी सही सलाह सुनकर और नि:स्वार्थ सेवा की भावना देखकर श्रीदत्त सेठ गद्-गद् हो गया। उसने महसूस किया"ज्ञानेश और उसके पिता धर्मेन्द्र का जैसा नाम है, वैसा इनका जीवन है। इन्होंने दहेज में तो कुछ चाहा ही नहीं, इन्हें मेरी सम्पत्ति की भी चाह नहीं, कितनी निर्लोभी प्रवृत्ति है इसकी ?
अरे! दुनिया में पैसा ही सबकुछ नहीं होता - यह बात ज्ञानेश ने मात्र कहकर नहीं, बल्कि व्यवहार में करके दिखा दिया। सचमुच यह धन-वैभव संयोग तो पुण्य-पापका खेल है। कभी यहाँ तो कभी वहाँ। मैं तो सारी सम्पत्ति ज्ञानेश को ही सौंप दूँगा। वह जो चाहे करे? अब तो मैं सभी चिन्ताओं से मुक्त हो गया हूँ।"
संयोग से ज्ञानेश की पत्नी सुनीता भी ज्ञानेश की भाँति ही सर्वगुण सम्पन्न है। क्यों न होगी ? समान गुण वालों में ही तो सहज-स्वभाविक प्रीति और आकर्षण होता है।
ज्योतिषियों के द्वारा जन्म-पत्री के आधार से मिलाये गुण तो कभी गलत भी हो सकते हैं, पर ज्ञानेश और सुनीता के गुणों का मिलान सही सिद्ध हो रहा है। कॉलेज के जीवन में इन दोनों ने परस्पर मिलकर इन्हीं सद्गुणों का मिलान ही तो किया था।
ऐसा कौन नवदम्पत्ति युगल है, जो विवाह उपरान्त साथ-साथ नहीं रहना चाहते; परन्तु जो अपने ऐशो-आराम से अपने कर्तव्य और दायित्व को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं, जो अपनी सम्पूर्ण सुखसुविधाओं को तिलाञ्जलि देकर भी अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं, अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं, वे ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एवं अपने लक्ष्य में सफल होते हैं।
सुनीता ऐसी कुलीन, उदार और सास-ससुर एवं परिवार की सेवा में समर्पित गृहणी है, जिसने अपने कर्तव्य और दायित्व को ही सर्वोपरि रखा। वह यह बात अच्छी तरह समझती है कि - प्रत्येक माता-पिता अपनी संतान से बहुत आशायें और अपेक्षायें रखते हैं। उनके अपने सपने होते हैं।
वे ऐसी कल्पनायें करते हैं कि - "बेटा बड़ा होगा, उसका हम ठाट-बाट से ब्याह करेंगे। घर में एक प्यारी-सी हँसती-मुस्कराती सेवा भावनाओं से भरी बहू आयेगी। फिर क्या है ? बिना कुछ किए - बैठे-बैठे प्रात: गरम-गरम चाय-नाश्ता और दोपहर में एवं शाम को गरम-गरम फुलके मिलने लगेंगे। फिर हमें क्या चिन्ता ? आनन्द से बुढ़ापा बीत जायेगा.............। थोड़े ही दिनों की ही तो बात है; ये प्रतीक्षा के दिन भी धीरे-धीरे बीत जायेंगे। अभी तो किसी का एक गिलास पानी का सहारा भी नहीं है।
मैंने तो इनसे कहा - "बेटे की शादी कर लो, पर ये सुने तब न ! कहते हैं, बस दो वर्ष की पढ़ाई और है, वह पूरी हुई नहीं कि बस फिर एक दिन की भी देर नहीं होने देंगे। मैं भी क्या करूँ ? ये प्राणलेवा बीमारियाँ न सुख से जीने ही देती और न चैन से मौत आती है। दो वर्ष तो बीस वर्ष से लग रहे हैं।" __ऐसी आशायें लिए बैठी माताओं की यदि आशायें पूरी न हों, उनकी आशाओं के अनुरूप उनके स्वप्न पूरे नहीं हुए तो कैसी मानसिक पीड़ा होती है; यह तो भुक्त-भोगी ही जानता है।
संभवत: यही सब सोचकर सुनीता ने निश्चय किया कि - "मेरा प्रथम कर्त्तव्य अपने माता-पिता तुल्य सास-ससुर की सेवा में रहना ही है। जबतक इनका जीवन है, मैं अपनी सुख-सुविधा की परवाह न करके इन्हें अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दूंगी।"
बस इसी दृढ़ निश्चय का निर्वाह करते हुए सुनीता ने अपने एवं अपने पति के सुख-दुःख की परवाह नहीं की।