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________________ सच्ची प्रीति पैसे की मुँहताज नहीं होती २५ 14 ये तो सोचा ही नहीं उसने 'मैना सुन्दरी और श्रीपाल' नाम का पौराणिक नाटक भी देखा/ पढ़ा था, जिसमें होनहार को ही प्रबल बताया गया है; परन्तु सेठ श्रीदत्त को इन बातों में विश्वास नहीं था । वह तो स्वयं ही सबका कर्ता-धर्ता (ईश्वर) बना बैठा था। ___ धनेश को जमाई बनाने के लिए सेठ श्रीदत्त ने बहुत प्रयास किए; परन्तु धनेश को एक तो पहले से यह पता था कि ज्ञानेश और सुनीता का परस्पर सहज आकर्षण है, वे एक-दूसरे को दिल से चाहते हैं। दूसरे, धनेश का सम्बन्ध धनश्री के साथ लगभग तय-सा था। इस कारण सेठ के लाखों-लाख प्रयत्न करने पर भी जब उनकी एक न चली तो अन्ततोगत्वा श्रीदत्त सेठ ने अपनी इकलौती बेटी की खुशी के लिए ज्ञानेश के साथ सम्बन्ध करना स्वीकृत कर तो लिया; पर इस शर्त के साथ किया कि ज्ञानेश को हमारा घर जमाई बनकर रहना होगा। हमारी बेटी जो अबतक राजशाही ठाट-बाट में पली-पुसी, बड़ी हुई और पढ़ी-लिखी है, वह आधुनिक सुख-सुविधाओं के बिना एक साधारण से घर में कैसे रह सकेगी? "न भाई ! न, यदि ज्ञानेश को मेरी घर जमाई बनने की शर्त स्वीकृत हो तो ही मैं अपनी बेटी का हाथ ज्ञानेश के हाथ में देने को तैयार हूँ। हाँ, मैं यह आश्वासन देता हूँ कि - शादी होते ही मैं उसे घर-जमाई के बतौर अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का वारिस बना दूँगा और अच्छे धंधे से भी लगा दूँगा।” ___ यद्यपि ज्ञानेश एवं सुनीता एक दूसरे को हृदय से चाहते हैं, परन्तु ज्ञानेश ने पूरी दृढ़ता के साथ श्रीदत्त सेठ के सामने दो बातें स्पष्ट कर दीं कि - "एक तो यह कि - मैं ससुराल की सम्पत्ति किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करूँगा। मुझे जो न्याय-नीति ईमानदारी से धन मिलेगा उसी में संतुष्ट रहकर जीवन निर्वाह करूँगा - यह मेरा दृढ़ संकल्प है। दूसरी बात यह कि - यदि मेरी मर्जी के मुताबिक सुनीता का सम्बन्ध मुझसे नहीं हो सकेगा तो मैं आजीवन कुँवारा ही रहूँगा। अब मेरे जीवन में अन्य कोई लड़की नहीं आयेगी। यह भी मेरा दृढ़ निश्चय है। आपके लिए यदि कोई योग्य घर-जमाई मिल जाता है और सुनीता उसे अपना लेती है तो ऐसा करने को आप और सुनीता स्वतंत्र हैं - इसका मुझे जरा भी अफसोस नहीं है। सुनीता के सुख के लिए भी मैंने सब विकल्प खुले रखे हैं; अतः आप परेशान न हों।" श्रीदत्त सेठ ने संतोष प्रगट करते हुए कहा - "अरे भाई ज्ञानेश ! तुम तो बहुत होनहार हो, मुझे तुम्हारे भाग्य तथा परिश्रम और पुरुषार्थ पर पूर्ण विश्वास है।" सेठ श्री दत्त ने सोचा - "ज्ञानेश धर्मात्मा तो है ही उसका भाग्य भी बलवान है और निर्लोभी भी है।" यह सोचकर श्रीदत्त सेठ ने तत्काल अपनी बेटी सुनीता का हाथ ज्ञानेश के हाथ में देने का निश्चय कर लिया। ज्ञानेश ने श्रीदत्त की भावना को जानकर गंभीर होकर उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि - सुनीता के माता-पिता होने से अब आप मेरे लिए भी माता-पिता तुल्य हो गये हैं। अतः अब आप बुढ़ापे के सहारे के लिए कोई चिन्ता न करें। हम हैं न आपकी सेवा करने के लिए। ___ मैं आपका अपना होने के कारण अधिकारपूर्वक आपको बिना माँगे एक सलाह देना चाहता हूँ। यदि आपको मेरी सलाह अच्छी लगे, आपका दिल स्वीकार करे तो आप मानें, अन्यथा कोई बात नहीं। मेरा कहना यह है कि - "आप अपनी सम्पूर्ण चल-अचल सम्पत्ति का अपने नाम से ही जनहित के लिए एक परमार्थ ट्रस्ट बना दें और उसका एक ऐसा ध्रुव फण्ड कायम कर दें कि जिसके ब्याज से प्राप्त धन का आप मुक्त हस्त से दान कर सकें। जरूरत के अनुसार मूलधन को भी दिल खोल कर खर्च करें। आपके बाद आपके द्वारा नियुक्त ट्रस्टी उस
SR No.008390
Book TitleYe to Socha hi Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size317 KB
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