________________
सच्ची प्रीति पैसे की मुँहताज नहीं होती
13
भिन्न आत्मा हूँ, कारण परमात्मा हूँ। इसतरह वह आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म एवं पुण्य-पाप का स्वरूप भी भलीभाँति समझने लगी है।
वह यह भी समझने लगी कि - पैसे का आना-जाना तो पुण्यपाप का खेल है। जो सत्कर्म करेगा, जो दया, दान करेगा, न्यायनीति से धनार्जन करेगा, उसका वर्तमान जीवन तो श्री सम्पन्न, सुखी और यशस्वी बनेगा ही, अगले जन्म में भी उसे उत्तम गति की प्राप्ति
होगी।
तीन सच्ची प्रीति पैसे की मुँहताज नहीं होती "प्रीति न देखे जात अर पाँत, भूख न देखे रूखो भात।" इस उक्ति के अनुसार जब ज्ञानेश और सुनीता का कॉलेज में एकदूसरे का परिचय प्रीति में परिवर्तित हुआ, तब वे एक-दूसरे की आर्थिक
और पारिवारिक परिस्थितियों से परिचित नहीं थे। प्रीति और समर्पण में आर्थिक स्थिति जानने की और परिवार के परिचय प्राप्त करने की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती। वस्तुत: प्रेम सम्बन्ध सुनियोजित कार्यक्रम के अनुसार नहीं होता। यह तो एक-दूसरे के अन्तर्बाहा व्यक्तित्व से प्रभावित होने पर सहजरूप से अनायास ही हो जाता है। इसमें क्यों, कैसे का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
जब ज्ञानेश और सुनीता को एक-दूसरे की आर्थिक स्थिति का पता चला तब भी वे उससे प्रभावित नहीं हुए । ज्ञानेश तो अपनी सीमित आय से ही संतुष्ट था, अत: उसे सुनीता की सम्पन्नता से कोई खास प्रयोजन नहीं था और सुनीता को भी ज्ञानेश की आर्थिक स्थिति की अपेक्षा नहीं थी; क्योंकि वह पितृगृह में श्रीसम्पन्न होकर भी बहुत सादगी पसन्द रही। उसकी आवश्यकतायें भी बहुत सीमित हैं। पिता की धनाढ्यता के अहं का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं रहा। वह स्वभाव से ही बहुत ही सादा-वेशभूषा में सादगी से रहना पसन्द करती है।
धर्म के प्रति भी उसका बचपन से ही झुकाव रहा है। धार्मिक व्यक्तियों से मिलकर उसे विशेष हर्ष होता है। बी.ए. करने के बाद उसने अपनी रुचि से ही अनेक धर्मग्रन्थों का अध्ययन भी कर लिया। इसकारण वह जानती थी कि मैं जन्म से पहले भी थी और मरण के बाद भी रहूँगी। मैं मात्र नारी नहीं, मैं इस नारी की देह में अवश्य हूँ; पर नारी से
पुण्य योग से हुआ भी यही, सुनीता के साथ ज्ञानेश के प्रीति सम्बन्धों में तो अनायास प्रगाढ़ता हुई ही, साथ ही ज्ञानेश को भी एक ऐसा बिजनिस हाथ लग गया, जिससे उसे जल्दी ही अच्छी आर्थिक आय की संभावनाएँ प्रबल हो गईं। परन्तु श्रीदत्त सेठ अपनी लाड़ली बेटी का रिश्ता अपने बराबरी वाले किसी बड़े घर और पढ़े-लिखे वर के साथ करना चाहते थे। धनेश ही उन्हें इन सब दृष्टियों से ठीक लग रहा था।
यद्यपि इसी बीच श्रीदत्त सेठ को अपनी पुत्री का रुख भी ज्ञात हो गया कि वह ज्ञानेश को चाहती है। पहले तो उन्हें बहुत ही अटपटा लगा, अंतरंग में अन्तर्द्वन्द भी हुआ; क्योंकि एक ओर वे अपनी इकलौती बेटी के दिल को भी नहीं तोड़ना चाहते थे और दूसरी ओर सिम्पल ग्रेजुएट तथा छोटे से दुकानदार का बेटा ज्ञानेश उनका जमाई बने ऐसा तो श्रीदत्त सेठ स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था। परन्तु किसी के सोचने न सोचने से क्या होता है, होता तो वही है जो मंजूरे खुदा होता है। हम कौन होते हैं किसी के शादी-ब्याह के सम्बन्धों को नक्की करनेवाले ? ये तो पहले से ही नक्की होते हैं। भाग्य ही इनका विधाता होता है।
सेठ ने भी ज्ञानियों के मुख से ये बातें सुनी तो थीं कि 'हुइये वही जो रामरचि राखा' तथा 'जो-जो देखी वीतराग ने सो-सो होसी वीरा रे!'