SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शलाका पुरुष भाग-२से १३३ १३२ यदिचूक गये तो अखण्डपिण्ड है; परन्तु अपने स्वभाव का भान नहीं होने से एवं पराधीन दृष्टि होने से अभी विभावरूप परिणमन कर रहा है; इसकारण दुःखी है। द्रव्यों का पदार्थों के इस स्वतंत्र परिणमन को पर्याय या कार्य कहते हैं। कर्म, अवस्था, हालत, दशा, परिणाम, परिणति भी कार्य के ही नामान्तर हैं; पर्यायवाची नाम हैं। सुख-दुःख, स्वभाव-विभाव रूप कोई भी कार्य हो, वह बिना कारणों से नहीं होता और एक कार्य के होने में अनेक कारण होते हैं। उनमें कुछ कारण तो समर्थ एवं नियामक होते हैं और कुछ आरोपित । आरोपित कारण मात्र कहने से कारण हैं, उनमें कार्य निष्पन्न नहीं होता। उनकी कार्य के निकट सन्निधि मात्र होती है। जैनदर्शन में इन कारणों की मीमांसानिमित्त व उपादान के रूप में होती है। ये निमित्त-उपादान कार्य की उत्पादक सामग्री के नाम हैं: अतः इन्हें जिनागम में कारण के रूप में वर्णित किया गया है। इन निमित्तोपादान कारणों का यथार्थ स्वरूप जाने बिना कर्ता-कर्म संबंधी निम्नांकित अनेक भ्रान्तियों के कारण हमें वीतराग धर्म की प्राप्ति संभव नहीं है। (अ) निमित्तोपादान को जाने बिना स्वावलम्बन का भाव जाग्रत नहीं होता। पराधीनता की वृत्ति समाप्त नहीं होती। (आ) मोक्षमार्ग का सम्यक् पुरुषार्थ स्फुरायमान नहीं होता। (इ) निमित्त-उपादान के सम्यक् परिज्ञान बिना जिनागम में प्रतिपादित वस्तुव्यवस्था को भी सम्यक्प में समझना संभव नहीं है। (ई) इनके सही ज्ञान बिना या तो निमित्तों को कर्ता मान लिया जाता है या निमित्तों की सत्ता से ही इन्कार किया जाने लगता है। (उ) इनके यथार्थ ज्ञान बिना वस्तु स्वातंत्र्य का सिद्धान्त एवं कार्यकारण की स्वतंत्रता समझना सम्भव नहीं है। अतः इनका ज्ञान परम आवश्यक है। (ऊ) निमित्तोपादान की यथार्थ समझ से तथा पर-पदार्थों के कर्तृत्व के अहंकार से उत्पन्न होने वाला कषाय चक्र सीमित हो जाता है, समता का भाव जाग्रत होता है। (ए) आत्मा के सुख-दुःख में, हानि-लाभ या उत्थान-पतन में निमित्तरूप परद्रव्य का किंचित् भी कर्तृत्व नहीं है तथा मेरा हिताहित दूसरे के हाथ में रंचमात्र भी नहीं है। ऐसी श्रद्धा के बिना स्वोन्मुखता संभव नहीं है तथा स्वोन्मुख हुए बिना आत्मानुभूति होना संभव नहीं है। (ऐ) निमित्तों का यथार्थ स्वरूप जाने बिना निमित्तों को कर्ता माने तो श्रद्धा मिथ्या है तथा निमित्तों को माने ही नहीं तो ज्ञान मिथ्या है। (ओ) निमित्तोपादान का स्वरूप समझने से दृष्टि निमित्तों पर से हटकर त्रिकाली उपादानरूप निज स्वभाव की ओर ढलती है, जो अपने देहदेवालय में विराजमान स्वयं कारण परमात्मा है। ऐसे कारण परमात्मा की ओर ढलती हुई दृष्टि ही आत्मानुभूति की पूर्व प्रक्रिया है। (औ) जो द्रव्य पर-पदार्थों के परिणमन में निमित्त रूप हैं, वे सभी निमित्तरूप द्रव्य स्वयं के लिए उपादान भी हैं। उदाहरणार्थ - जो कुम्हार घट का कार्य का निमित्त है, वही कुम्हार अपनी इच्छारूप कार्य का उपादान भी तो है। (अं) निमित्त व उपादान कारणों के अलग-अलग गाँव नहीं बसे हैं। जो दूसरों के कार्य के लिए निमित्त हैं, वे ही स्वयं अपने कार्य के उपादान हैं। (अ) हाँ कारण, प्रत्यय, हेतु, साधन, सहकारी, उपकारी, उपग्राहक, आश्रय, आलम्बन, अनुग्राहक, उत्पादक, कर्ता, प्रेरक हेतुमत, अभिव्यंजक आदि नामान्तरों का प्रयोग भी आगम में निमित्त के अर्थ में हुआ है। -- ज्ञानपर्याय जब पर और पर्याय से पृथक् त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा को ज्ञेय बनाती हैं, तभी आत्मानुभूति प्रगट हो जाती है, इसे ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शन ही सुख-शान्ति प्राप्त करने का अमोघ (६७)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy