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________________ शलाका पुरुष भाग-२से १३१ १३० यदिचूक गये तो अधिक से कोई फर्क नहीं पड़ता। शर्त यह है कि - अपनी सम्पूर्ण शक्ति वस्तुस्वरूप के विचार में, आत्मचिन्तन में और जिनवाणी के रहस्यों को जानने में, उसी की अनुप्रेक्षा में लगाना चाहिए। इस सम्पूर्ण समर्पण की भावना से आत्मा की उपलब्धि अवश्य होगी। पारस के स्पर्श से तो मात्र लोहा ही सुवर्ण होता है, प्रभु के स्पर्श एवं आत्मा की अनुभूति से तो आत्मा परमात्मा बन जाता है। हे भव्य! आत्मा में एक ही नहीं, अपितु अनन्तधर्म एकसाथ विद्यमान हैं। एक ही समय में सत्पना और असत्पना; एकपना और अनेकपना; नित्यपना और अनित्यपना, ज्ञान और आनन्द, कर्तृत्व और अकर्तृत्व - ऐसे अनन्त धर्म किसी प्रकार के विरोध बिना आत्म वस्तु में एकसाथ विद्यमान हैं। यही वस्तु का स्वरूप है। जिन पदार्थों के खाने से त्रस जीवों का घात होता हो या बहुत स्थावर जीवों का घात हो तथा जो पदार्थ भले पुरुषों के सेवन करने योग्य न हों या नशाकारक अथवा अस्वास्थ्य कर हों, वे सब अभक्ष्य हैं। -- द्विदल के न खाने के विषय में जैनेत्तर ग्रन्थों में भी कहा है - हे युधिष्ठिर! गोरस के साथ जिन पदार्थों की दो दालें होती हैं, ऐसे उड़द, मूंग आदि के सेवन करने से मांस भक्षण के समान पाप लगता है। मूल कथन इसप्रकार है 'गोरसं मांस मध्ये तु, मुद्गादि तथैव च । भक्ष्यमाणं कृतं नूनं, मांस तुल्यं युधिष्ठिरः ।। वस्तु में सर्वगुण-धर्म एक समान, तन्मयरूप से विद्यमान हैं, उनमें कोई गौण नहीं है। वक्ता अपने अभिप्राय के अनुसार जब उनमें से किसी एक को मुख्य करता है, उसी समय उसके ज्ञान में दूसरा पक्ष गौणरूप से विद्यमान रहता है, उनका निषेध नहीं है। प्रत्येक वस्तु द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप तथा उत्पाद-व्यय-धूव-स्वरूप स्वाधीन है। उसके द्रव्य-गण-पर्याय में किसी का हस्तक्षेप नहीं है, अपने स्वाधीन स्वरूप को समझनेवाला जीव अपनेअपने धर्म स्वभावों से ही तृप्त रहता है। -- इस जीव को शरीर के साथ का संबंध नित्य रहने वाला नहीं है। अनन्त शरीरों के साथ संबंध हुआ; किन्तु एक भी शरीर स्थायी नहीं रहा। सब पृथक् हो गये; क्योंकि शरीर का स्वभाव ही ऐसा है, जीव और शरीर तो पृथक ही हैं; परन्तु अज्ञानी बहिरात्मा जीव ने देह और जीव को एक मान रखा है। इसीप्रकार पाँचों इन्द्रियों और उनके विषयों का संबंध भी नित्य रहनेवाला नहीं है, सब संयोग क्षणभंगुर हैं। - ऐसा निश्चय करके समय रहते आत्मा स्वरूप जानो, धर्माचरण करो। जैनदर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं। छह द्रव्यों में जीव द्रव्य अनन्त हैं, पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त हैं, धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य एवं आकाश द्रव्य एक-एक हैं। काल द्रव्य असंख्यात हैं। इन सभी द्रव्यों के समूहरूप यह विश्व अनादि-अनन्त, नित्यपरिणमनशील एवं स्वसंचालित है। इन द्रव्यों का परस्पर एक क्षेत्रावगाह संबंध होने पर भी ये सभी द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र हैं, स्वावलम्बी हैं। कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के आधीन नहीं है। वस्तुतः इन द्रव्यों का परस्पर में कुछ भी संबंध नहीं है। इस विश्व को ही लोक कहते हैं। इसी कारण आकाश के जितने स्थान में ये छह द्रव्य स्थित हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं। शेष अनन्त आकाश अलोकाकाश हैं। -- हमारा तुम्हारा आत्मा भी एक स्वतंत्र स्वावलम्बी द्रव्य है, वस्तु है, परिणमनशील पदार्थ है। स्वभाव से तो यह आत्मद्रव्य अनन्तगुणों का समूह एवं अनन्तशक्ति सम्पन्न है, असीम सुख का समुद्र और ज्ञान का (६६)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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