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यदिचूक गये तो
शलाका पुरुष भाग-२से
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यमराज (मौत) के समीप पहुँचा रहे हैं, उनकी गोद में बैठा अपने को अमर माने बैठा है।
सप्त व्यसनों का त्यागी और अष्ट मूलगुणों का धारी होना आवश्यक है; क्योंकि वह व्यक्ति ही आत्मा-परमात्मा की बात समझ सकता है। साततत्त्वों की बात समझ सकता है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की पहचान कर सकता है। अतः प्रत्येक निराकुल सुख-शान्ति चाहनेवाले आत्मार्थी व्यक्ति को सप्तव्यसनों का त्यागी और अष्टमूलगुणों का धारी तो होना ही चाहिए।
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वैराग्य का तीसरा कारण यह है कि - ये जीव अभिलाषारूप ज्वाला में जलकर विषयभोग रूपी किसी सूखी नदी के तट पर खड़े पुष्प पत्र एवं फल विहीन वृक्षों की छाया का आश्रय खोजते-फिरते हैं, उनकी यह सुखी होने की आशा दुराशा मात्र है। निर्जल नदी और छाया एवं फल रहित वृक्ष अभिलाषा से जलते हुए प्राणियों को शीतलता कहाँ से प्रदान करेंगे?
मद्य-मांस-मधु और पाँचों उदुम्बर फलों का त्याग ही अष्ट मूलगुण है। मूलगुण अर्थात् मुख्य गुण, जिनके धारण किये बिना श्रावकपना ही संभव न हो। जिसप्रकार मूल (जड़) के बिना वृक्ष का खड़ा रहना संभव नहीं है, उसीप्रकार मूलगुणों के बिना, श्रावकपना भी सम्भव नहीं है।
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ये मुख्यरूप से आठ हैं, अतः इन्हें अष्ट मूलगुण कहते हैं। मद्य-मांसमधु एवं पाँच उदुम्बर फलों का सेवन महा दुःखदायक और असीमित पापों का घर है अर्थात् इनके खाने-पीने से महापाप उत्पन्न होता है; अतः इनका त्याग करके निर्मलबुद्धि को प्राप्त श्रावक ही जैनधर्म के उपदेश को प्राप्त होता है।
हे भव्य! देवदर्शन की अचिन्त्य महिमा है और दिव्यध्वनि तो मिथ्यात्वरूप अन्धकार की विनाशक है ही; अतः देवदर्शन की महिमा में कहा गया है - हे भव्य! देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव का दर्शन पापों को नष्ट करनेवाला है, स्वर्ग का सोपान है, मोक्ष का साधन है। जिनेन्द्र देव के दर्शन से और साधु परमेष्ठियों की वन्दना से पाप इसतरह क्षीण हो जाते हैं, जैसे हाथ की चुल्लू का पानी धीरे-धीरे जमीन पर गिर ही जाता है, वह बहुत देर तक हाथ की चुल्लू में नहीं रह सकता।
इस संसार में वैराग्य के मुख्यरूप से तीन कारण हैं - १. प्रथम तो यह है कि जीव निरन्तर यमराज (मृत्यु) के मुख में बैठा रहने पर भी जीवित रहने की सोचता है, तदनुसार निष्फल प्रयत्न भी करता है, तीव्र मोहवश मृत्यु को जीतने का प्रयत्न नहीं करता, अजर-अमर होने की दिशा में बिल्कुल भी नहीं सोचता । इसलिए इस अज्ञान अंधकार को धिक्कार है। मैं इस अंधेरे से ऊब चुका हूँ। अतः मैं तो शीघ्र सम्यग्ज्ञान ज्योति के प्रकाश में जाऊँगा।
-- दूसरा कारण यह कि - अनन्तकाल की अपेक्षा मनुष्य की आयु अत्यन्त अल्प है; परन्तु आश्चर्य यह है कि जो आयु के क्षण प्रतिपल
प्रतिष्ठा होने के पश्चात् (वह) प्रतिमा भी साक्षात् जिनेन्द्रदेव के समान ही वन्दनीय-पूज्यनीय होती है; क्योंकि उस प्रतिमा के दर्शन से जिनेन्द्रदेव के दर्शन के समान ही पूरा लाभ होता है।
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हे भव्य! जिनेन्द्रदेव का दर्शन-पूजन उनको प्रसन्न करने के लिए नहीं किए जाते, वरन् अपने चित्त की प्रसन्नता के लिए किए जाते हैं। वे तो वीतराग होने से तुष्ट या रुष्ट नहीं होते, पर उनके गुणस्मरण करने से हमारा मन अवश्य ही प्रसन्न एवं पवित्र हो जाता है।