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________________ ३८ यदिचूक गये तो हरिवंश कथा से हमें पुण्य-पाप से पार शुद्धोपयोगमय होना होगा तथा आत्मा के शुद्धस्वरूप को जानकर, उसमें ही रुचि और परिणति करना होगी। अतः यह अवसर न चूकें। मोक्षमार्ग। जो वस्तु जैसी है, उसका उसीरूप में निरूपण करना अर्थात् सच्चे मोक्षमार्ग को मोक्षमार्ग कहा जाय, वह निश्चय मोक्षमार्ग है, और जो मोक्षमार्ग तो है नहीं, परन्तु मोक्षमार्ग का निमित्त व सहचारी है, उसे निमित्तादि की अपेक्षा किसी को किसी में मिलाकर उपचरित कथन करना व्यवहार मोक्षमार्ग है। जैसे - मिट्टी के घड़े को मिट्टी का कहना निश्चय और घी का संयोग देखकर उपचार से उसे घी का घड़ा कहना व्यवहार है। व्रतों को धारण करने की जल्दी मत करो। परिपक्व होकर भूमिका के अनुसार जो व्रत होंगे वे ही निर्दोष पलेंगे। व्रत न लेने का कम दोष है और व्रतों को भंग करना महादोष ही नहीं, बल्कि अपराध है। ये संबंध भी पूर्व संस्कारों से ही निश्चित होते हैं, जिसका जिसके साथ सम्बन्ध होना होता है, उसे देखते ही अनुकूल भाव बन जाते हैं। -- जिन्होंने पूर्व में वीतराग धर्म की साधना-आराधना करके आत्म विशुद्धि के साथ शुभभावों से विशेष पुण्यार्जन किया है, वह अकेला और निहत्था-शस्त्र रहित होकर भी अच्छे-अच्छे सशस्त्र शूरवीरों को परास्त कर देता है। अतः जो भी लौकिक जीवन को यशस्वी और सुखद बनाने के साथ पारलौकिक दृष्टि से अपना कल्याण करना चाहते हैं, उन्हें जिनेन्द्र कथित वस्तुस्वातंत्र्य जैसे सिद्धान्तों को समझना चाहिए। हम कभी सोच भी नहीं सकते कि अपने द्वारा किए शुभाशुभ भावों का फल किन-किन रूपों में सामने आता है। ऐसे जीव कभी आसमान में उड़ते नजर आते हैं तो कभी धरती की धूल चांटते दिखाई देते हैं। -- कहावत तो ऐसी है कि 'कर भला तो हो भला' परन्तु यदि पुराना पाप आड़े आ जाय तो कभी दूसरों का भला करने पर भी स्वयं का बुरा होता दिखाई देता है; ऐसा होने पर भला काम करना न छोड़े क्योंकि भले काम का नतीजा तो भला ही होगा। आत्मा का हित तो आत्मा के जानने में है, अतः यदि मन को मर्यादा में रखना है तो मन के विकल्पों को भी आत्मा के अवलम्बन से तथा वस्तुस्वरूप की समझ से नियंत्रित करना चाहिए? आयु शेष हो और पुण्य का उदय हो, तो उसे दुनियाँ की बड़ी से बड़ी ताकत नष्ट एवं दुःखी नहीं कर सकती। अध्यात्म की साधना, आराधना करने से जो आत्मा में शुद्धि और विशुद्धि होती हैं, उससे ही ऐसा पुण्य बंध होता, जिससे यह सब अनुकूलता की प्राप्ति सहज होती है। अतः तुम इस आध्यात्मिक सिद्धान्तों को कभी नहीं भूलना। और यह सब इस मनुष्य पर्याय में ही संभव है, अतः यह मौका न चूकें। पुण्य-पाप का कुछ ऐसा ही विचित्र स्वभाव है कि उनके उदय में जीव संयोग-वियोगों के झूले में झूलता हुआ संसार-सागर में गोते खाता रहता है। यदि सदा के लिए अतीन्द्रिय आनन्द, निराबाध सुख प्राप्त करना हो तो (२०) जो देव-गुरु-धर्म और तत्त्व का निर्णय किए बिना ही मात्र घर से
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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