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पाठ २
देव-शास्त्र-गुरु
"राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैन निर्ग्रन्थवादी।” ("मैं जैन निर्ग्रन्थवादी हैं। जिसकी शक्ति हो मेरे सामने बोले।")
आपके परवर्ती आचार्यों ने आपका स्मरण बड़े ही सम्मान के साथ किया है। आपकी आद्य-स्तुतिकार के रूप में प्रसिद्धि है। आपने स्तोत्रसाहित्य को प्रौढ़ता प्रदान की है। आपकी स्तुतियों में बड़े-बड़े गंभीर न्याय भरे हुए हैं। ___ आपने आप्तमीमांसा, तत्त्वानुशासन, युक्त्यनुशासन, स्वयंभू स्तोत्र, जिनस्तुति शतक, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, प्राकृत-व्याकरण, प्रमाण पदार्थ, कर्म प्राभृतटीका और गंधहस्ति महाभाष्य (अप्राप्य) नामक ग्रंथों की रचना की है।
प्रस्तुत अंश रत्नकरण्ड श्रावकाचार के प्रथम अध्याय के आधार पर लिखा गया है।
आचार्य समन्तभद्र (व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व)
लोकैषणा से दूर रहने वाले स्वामी समन्तभद्र का जीवन चरित्र एक तरह से अज्ञात ही है। जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि महान कार्यों के करने के बाद भी उन्होंने अपने बारे में कहीं कुछ नहीं लिखा है। जो कुछ थोड़ा बहुत प्राप्त है, वह पर्याप्त नहीं।
आप कदम्ब राजवंश के क्षत्रिय राजकमार थे। आपके बाल्यकाल का नाम शान्तिवर्मा था। आपका जन्म दक्षिण भारत में कावेरी नदी के तट पर स्थित उरगपुर नामक नगर में हुआ था। आपका अस्तित्व विक्रम सं. १३८ तक था। ___ आपके पारिवारिक जीवन के संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है, आपने अल्पवय में ही मुनि दीक्षा धारण कर ली थी। दिगम्बर जैन साधु होकर आपने घोर तपश्चरण किया और अगाध ज्ञान प्राप्त किया।
आप जैन सिद्धान्त के तो अगाध मर्मज्ञ थे ही; साथ ही तर्क, न्याय, व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य और कोष के भी अद्वितीय पण्डित थे। आपमें बेजोड़ वाद-शक्ति थी। आपने कई बार घूम-घूम कर कुवादियों का गर्व खण्डित किया था। आपके आत्मविश्वास को निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है -
“वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।” (“ हे राजन् ! मैं वाद के लिए सिंह की तरह विचरण कर रहा
आधार-रत्नकरण्ड श्रावकाचार देव की परिभाषा
आप्तेनोछिन्नदोषेण, सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।५।। क्षुत्पिपासा-जरातंक-जन्मान्तक-भयस्मयाः।
न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ।।६।। शास्त्र की परिभाषा
आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्य, मदृष्टेष्टविरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत-सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम् ।।९।। गुरु की परिभाषा
विषयाशावशातीतो, निरारंभोऽपरिग्रहः। ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥
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