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________________ प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है। सन्तप्त हृदय प्रभु ! चन्दन सम, शीतलता पाने आया है।।२।। ॐ हीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो क्रोधकषायमलविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। अक्षत उज्ज्वल हूँ कुन्द-धवल हूँ प्रभु! पर से न लगा हूँ किञ्चित् भी। फिर भी अनुकूल लगे, उन पर, करता अभिमान निरन्तर ही।। जड़ पर झुक-झुक जाता चेतन, की मार्दव की खण्डित काया। निजशाश्वत' अक्षय-निधि पाने, अब दास चरण रज में आया ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मानकषायमलविनाशनाय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा । पुष्प यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं। निज अन्तर का प्रभु! भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं।। चिंतन कुछ संभाषण कुछ, क्रिया कुछ की कुछ होती है। स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ जो, अन्तर का कालुष' धोती है।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मायाकषायमलविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। नैवेद्य अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु! भूख न मेरी शान्त हुई। तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही।। युग-युग से इच्छासागर में, प्रभु! गोते खाता आया हूँ। चरणों में व्यंजन अर्पित कर, अनुपम रस पीने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो लोभकषायमलविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । दीप जग के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैंने उजियारा। झंझा के एक झकोरे में जो बनता घोर तिमिर कारा ।। अत एव प्रभो! यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया हूँ। तेरी अंतर लौ' से निज अंतर, दीप जलाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अज्ञान अंधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। १. निरभिमानी आत्मस्वभाव । २. सदा रहनेवाली। ३. कभी नाश न होनेवाली निधि । ४. सरलता। ५. विकार । ६. खाली । ७. वायु का वेग या तूफान । ८. अंधकार । ९. केवलज्ञानरूपी दीपक। धूप जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति' रही मेरी। मैं रागी-द्वेषी हो लेता, जब परिणति होती जड़ केरी ।। यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ। निज अनुपम गंध-अनल से प्रभु, पर-गंध जलाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो विभावपरिणतिविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। फल जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है। मैं आकुल-व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है।। मैं शान्त निराकुल चेतन हूँ, है मुक्ति-रमा सहचर मेरी। यह मोह तड़क कर टूट पड़े, प्रभु! सार्थक फल पूजा तेरी ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा । अर्घ्य क्षण भर निज-रस को पी चेतन, मिथ्या-मल को धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द अमृत पीता है।। अनपम सुख तब विलसित होता. केवल-रवि' जगमग करता है। दर्शनबल' पूर्ण प्रकट होता, यह ही अरहन्त अवस्था है।। यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु! निज गुण का अर्घ्य बनाऊँगा। और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अरहन्त अवस्था पाऊँगा ।। ॐ ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। स्तवन भव वन में जी भर घूम चुका, कण-कण को जी भर-भर देखा। मृग-सम" मृग-तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ।। १. झूठी मान्यता।२-३. राग-द्वेष-मोहरूप विकारी भाव ही भावकर्म और भाव मरण हैं। ४.सैंकड़ों वर्ष । ५. अग्नि । ६. पर में एकत्व बुद्धिरूपी गंध । ७. सफल। ८. मिथ्यादर्शनरूपी मैल। ९. प्रगट होता है, शोभित होता है। १०.केवलज्ञानरूपी सूर्य । ११. अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्य । १२. निजस्वभाव (गुणों) की साधना करूँगा।१३. मृग के समान। १४. रेगिस्तान में प्यासा हिरण बालू की सफेदी को जल समझ दौड़-धूप करता है, पर उसकी प्यास नहीं बुझती उसको मृगतृष्णा कहते हैं, उसीप्रकार यह आत्मा भोगों में सुख खोजता रहा पर मिला नहीं। (३) (२)
SR No.008387
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size142 KB
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