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हैं, भेद करके तो मात्र शिष्यों को समझाने के लिए कहे गये हैं।
योग्य आचरण करनेवाले सत्पुरुष के रागादि भावों के नहीं होने पर केवल परप्राण- पीड़न होने से हिंसा नहीं होती तथा अयत्नाचार (असावधानी) प्रवृत्तिवाले जीव के अन्य जीव मरें, चाहे न मरें, हिंसा अवश्य होती है; क्योंकि वह कषाय भावों में प्रवृत्त रहकर आत्मघात तो करता ही रहता है और 'आत्मघाती महापापी' कहा गया है।
यहाँ कोई कह सकता है कि जब दूसरे जीव का मरने और न मरने से हिंसा का कोई संबंध नहीं है तो फिर हिंसा के कार्यों से बचने की क्या आवश्यकता है ? बस परिणाम ही शुद्ध रखे रहे। इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं -
सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबंधना भवति पुंसः । हिंसायतननिवृत्ति: परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।। हालांकि परवस्तु के कारण रंचमात्र भी हिंसा नहीं होती है, फिर भी परिणामों की शुद्धि के लिए हिंसा के स्थान परिग्रहादिक को छोड़ देना चाहिए।
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व्यवहार में जिसे हिंसा कहते हैं जैसे किसी को सताना, दु:ख देना आदि हिंसा न हो - यह बात नहीं है। वह तो हिंसा है ही, क्योंकि उसमें प्रमाद का योग रहता है। पर हमारा लक्ष्य उसी पर केन्द्रित हो जाता है और हम अन्तर्तम में होनेवाली भावहिंसा की तरफ दृष्टि नहीं डाल पाते हैं, अतः यहाँ पर विशेषकर अन्तर में होनेवाली रागादि भावरूप भावहिंसा की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता है। जिस जीव के बाह्य स्थूलहिंसा का भी त्याग नहीं होगा, वह तो इस अन्तर की हिंसा को समझ ही नहीं सकता।
अतः चित्तशुद्धि के लिए अभक्ष्य भक्षणादि एवं रात्रि - भोजनादि हिंसक कार्यों का त्याग तो अति आवश्यक है ही तथा मद्य, मांस, मधु एवं पंच उदुम्बर फलों का त्याग भी आवश्यक है; क्योंकि इनके सेवन अनन्त स जीवों का घात होता है तथा परिणामों में क्रूरता आती है।
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अहिंसक वृत्तिवाले मंद कषायी जीव की इसप्रकार की अनर्गल प्रवृत्ति नहीं पाई जा सकती है।
हिंसा दो प्रकार की होती है -
(१) द्रव्य हिंसा
(२) भाव हिंसा
जीवों के घात को द्रव्य-हिंसा कहते हैं और घात करने के भाव को भाव - हिंसा, इतना तो प्राय: लोग समझ लेते हैं; पर बचाने का भाव भी वास्तव में सच्ची अहिंसा नहीं, क्योंकि वह भी रागभाव है यह प्रायः नहीं समझ पाते ।
रागभाव चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, उसकी उत्पत्ति निश्चय से तो हिंसा ही है, क्योंकि वह बंध का कारण है। जब रागभाव की उत्पत्ति को हिंसा की परिभाषा आचार्य अमृतचन्द्र ने सम्मिलित किया होगा, तब उसके व्यापक अर्थ ( शुभ राग और अशुभ राग) का ध्यान उन्हें न रहा हो ऐसा नहीं माना जा सकता ।
अहिंसा की सच्ची और सर्वोत्कृष्ट परिभाषा आचार्य अमृतचन्द्र ने दी है कि रागभाव किसी भी प्रकार का हो, हिंसा ही है। यदि उसे कहीं अहिंसा कहा हो तो उसे व्यवहार (उपचार) का कथन जानना चाहिए।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ऐसी अहिंसा तो साधु ही पाल सकते हैं; अत: यह तो उनकी बात हुई। सामान्यजनों (श्रावकों) को तो दयारूप (दूसरों को बचाने का भाव) अहिंसा ही सच्ची है। पर आचार्य अमृतचन्द्र ने श्रावक के आचरण के प्रकरण में ही इस बात को लेकर यह सिद्ध किया है कि अहिंसा दो प्रकार की नहीं होती, अहिंसा को जीवन में उतारने के स्तर दो हो सकते हैं; हिंसा तो हिंसा ही रहेगी। यदि श्रावक पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हो सकता तो वह अल्प हिंसा का त्याग करे; पर जो हिंसा वह छोड़ न सके, उसे अहिंसा तो नहीं माना जा सकता है। यदि हम पूर्णत: हिंसा का त्याग नहीं कर सकते हैं तो हमें अंशतः त्याग करना चाहिए। यदि वह भी न कर सकें तो कम से कम
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