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अवश्य ही कर देना चाहिए; क्योंकि जब तक एक भी व्यसन रहेगा, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती। आत्मरुचि से आत्मस्वभाव की वृद्धि में आनंदित होने से भाव व्यसन सहज छूट जाते हैं। ये सातों व्यसन वर्तमान में भी प्रत्यक्षरूप से दुःखदाई जगत्-निन्द्य हैं। व्यसन सेवन करनेवाले व्यसनी और दुराचारी कहलाते हैं।
प्रश्न १. कविवर पं. बनारसीदासजी के व्यक्तित्व व कर्तृत्व पर प्रकाश डालिए। २.व्यसन किसे कहते हैं ? वे कितने होते हैं ? नाम सहित गिनाइये। ३. द्रव्य-जुआ, भाव-मदिरापान, भाव-परस्त्रीरमण और द्रव्य-शिकार व्यसन
को स्पष्ट कीजिए। ४. निम्नलिखित पंक्तियों को स्पष्ट कीजिए -
(क) "देह की मगनताई, यहै मांस भखिबो।" (ख) “प्यार सौं पराई सौंज गहिबे की चाह चोरी।"
३. मदिरापान - शराब, भांग, चरस, गांजा आदि नशीली वस्तुओं का सेवन करना द्रव्य-मदिरापान है।
तथा मोह में पड़कर आत्मस्वरूप से अनजान रहना, भाव मदिरापान है।
४. वेश्यागमन करना - वेश्या से रमना, उसके घर आना-जाना द्रव्यरूप से वेश्यागमन है।
तथा खोटी बुद्धि में रमने का भाव, भाव वेश्यागमन है अर्थात् अपने आत्म-स्वभाव को छोड़ विषय-कषाय में बुद्धि रमाना ही भाव वेश्यारमण है। वेश्या धन, स्वास्थ्य तथा इज्जत नष्ट कर छोड़ देती है, पर मिथ्यामति (कुबुद्धि) तो आत्मा की प्रतिष्ठा को हर कर अनंतकाल के निगोद के दुःखों में ढकेल देती है।
५. शिकार खेलना - जंगल के रीछ, बाघ, हिरण, सुअर वगैरह स्वच्छन्द फिरनेवाले जानवरों को तथा छोटे-छोटे पक्षियों को निर्दय होकर बन्दूक आदि किसी भी हथियार से मारना व मारकर आनन्दित होना द्रव्यरूप से शिकार खेलना है।
तथा तीव्र रागवश ऐसे कार्य करने के भावों द्वारा अपने चैतन्य प्राणों का घात करना, यह भावरूप से शिकार खेलना है।
६. परस्त्रीरमण करना - अपनी धर्मानुकूल ब्याही हुई पत्नी को छोड़कर अन्य स्त्रियों के साथ रमण करना, द्रव्य-परस्त्रीरमण व्यसन है।
तत्त्व को समझने का यत्न न करके दूसरों की बुद्धि की परख में ही ज्ञान का सदुपयोग मानना वह भाव परस्त्रीरमण है।
७. चोरी करना - प्रमाद से बिना दी हुई किसी वस्तु को ग्रहण करना द्रव्य चोरी है।
तथा प्रीतिभाव (मोहभाव) से परवस्तु से साझेदारी की चाह करना (अपनी मानना) ही भाव चोरी है।
इन सात व्यसनों को त्यागे बिना आत्मा को नहीं जाना जा सकता है।
जिसे संसार के दु:खों से अरुचि हुई हो और आत्मस्वरूप प्राप्त कर सच्चा सुख प्राप्त करना हो, उसे सर्वप्रथम उक्त सात व्यसनों का त्याग
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