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विदाई की बेला/१६ ईर्ष्या नहीं करते। जो शिष्यों से ईर्ष्या करें वह गुरु तो वस्तुतः गुरु ही नहीं है, क्योंकि जब उसमें गुरुत्व नहीं तो वह किसी का गुरु कैसे बन सकता है?
इस तरह मैं अपने मन में चल रहे अन्तर्द्वन्द्व को शांत करके विवेकी को विदाई देने का साहस जुटा ही रहा था कि देखते ही देखते विवेकी ने
आँखें बंद कर लीं, मानो वह अतीन्द्रिय आनन्द में निमग्न होकर निर्विकल्प होने का पुरुषार्थ कर रहा हो। __मैं उसकी आँखें खुलने की प्रतीक्षा करता रहा, पर वे खुली ही नहीं, मुँह पर हाथ फेरकर देखा तो पाया कि वह मोह-माया से संघर्ष करतेकरते स्वरूप के सहारे मृत्युंजयी बन गया है, अमर हो गया है। वैसे मैंने विदाई तो बहुत बार बहुतों को दी, पर धन्य था, वह विवेकी, जिसने सार्थक और सफल कर ली अपनी अंतिम विदाई की बेला।
ॐ शान्ति ......... शान्ति .............. शान्ति ...........
अभिमत (पाठकों की दृष्टि में प्रस्तुत प्रकाशन) • वस्तुतः इस कृति को पढ़कर हम गद्-गद् हो गये
'विदाई की बेला' में अनेकों जगह ऐसे मर्मस्पर्शी प्रसंग और वाक्य आये हैं, जिन्हें पढ़कर हम विमोहित से हो गये।
संसार का स्वरूप, मनुष्य जन्म की दुर्लभता और उसकी सार्थकता, पारिवारिक (घरेलू) जीवन के अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों में समताभाव धारण करने के उत्प्रेरक कथा प्रसंग और सभी प्रासंगिक बातों का सहज कथा प्रवाह एवं सभी विषयों का अति सुन्दर ढंग से सरल भाषा में मार्मिक प्रतिपादन इस कृति में हुआ है। इसे पढ़कर हमें प्रेरणा तो मिली ही, मागदर्शन भी मिला।
- जिनेन्द्र दास जैन सेवानिवृत्त इंजीनियर, धामपुर (उ.प्र.) • यह इतनी अच्छी लगी कि बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है
पण्डित रतनचन्दजी भारिल्ल की नूतन कृति 'विदाई की बेला' एक उच्चकोटि की रचना है। इसमें सदासुखी और विवेकी के कथानक के माध्यम से संसार की दशा का सहज ही सुन्दर चित्रण किया गया है। पुस्तक के शीर्षक को देखकर पहले तो ऐसा लगा कि इसमें लड़की की विदाई की बेला का कोई चित्रण होगा। किन्तु पुस्तक को ध्यानपूर्वक पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि इसमें तो चिर विदाई (मृत्यु महोत्सव) की बेला का विशद विवेचन है। इसमें विवेकी की चिर विदाई की बेला का जो मार्मिक चित्रण किया गया है वह चिन्तन और मनन के योग्य है। विषय प्रतिपादन की शैली अत्यन्त रोचक है। वर्तमान युग में ऐसे ही साहित्य की आवश्यकता है। मुझे यह पुस्तक इतनी अच्छी लगी कि बार-बार इसे पढ़ने की इच्छा होती है। - सेवानिवृत्त प्रो. उदयचंद्रजी जैन
सर्वदर्शनाचार्य, पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस
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