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________________ विदाई की बेला/१ कैसे समझाया जाये इन वृद्धजनों को कि तुम अपना अमूल्य समय इन व्यर्थ की बातों में बर्बाद क्यों कर रहे हो? पहाड़ से अपना माथा क्यों मार रहे हो? इन बातों से दुनियाँ में तो कोई परिवर्तन होने वाला है नहीं, तुम्हारा ही मनुष्यभव बिगड़ जायेगा । क्या तुम्हारे ये सारे विकल्प निरर्थक नहीं हैं? यहाँ बैठकर इन बातों से क्या सार निकलने वाला है? यह तो ऐसा अरण्य रुदन है, जिसे पशु-पक्षी और जंगल के जानवरों के सिवाय और कोई नहीं सुनता। यह न केवल समय की बर्बादी है, बल्कि इन बातों में आर्त-रौद्ररूप खोटा ध्यान होने से ये बातें कुगति की कारण भी हैं।" “वैसे भी सभी का यह कर्तव्य है कि वे ज्ञाता-दृष्टा रहें; क्योंकि सभी को शांत व सुखी होना है, आनंद से रहना है। पर वृद्धजनों का तो अब एक मात्र यही मुख्य कर्तव्य रह गया है कि जो भी हो रहा है, वे उसके केवल ज्ञाता-दृष्टा रहें; उसमें रुचि न लें, राग-द्वेष न करें। क्योंकि वृद्धजन यदि अब भी सच्चे सुख का उपाय नहीं अपनायेंगे तो कब अपनायेंगे? फिर उन्हें यह स्वर्ण अवसर कब मिलेगा? उनका तो अब अपने अगले जन्म-जन्मान्तरों के बारे में विचार करने का समय आ ही गया है, वे उसके बारे में क्यों नहीं सोचते? इस जीवन को सुखी बनाने और जगत को सुधारने में उन्होंने अब तक क्या कुछ नहीं किया? बचपन, जवानी और बुढ़ापा - तीनों अवस्थाएँ इसी उधेड़-बुन में ही तो बिताई हैं, पर हुआ क्या? जो कुछ किया, वे सब रेत के घरोंदे ही तो साबित हुए, जो बनाते-बनाते ही ढह गये और हम बस हाथ मलते रह गये; फिर भी इन सबसे वैराग्य क्यों नहीं आया?" - यही विचार करते-करते मेरा पूरा एक घंटा कब-कैसे बीत गया, वे लोग कब उठ कर चले गये - कुछ पता ही नहीं लगा। मैं उनसे कुछ कहना चाहता था, पर कह नहीं पाया। मन की बात मन में संजोये मैं अपने निवास पर लौट आया। दूसरे दिन मैं उसी बैंच पर बैठा हुआ वैचारिक उड़ानें भर-भर कर किसी कल्पनालोक में विचर रहा था कि न जाने वे दोनों कब आकर मेरे सामने वाली बैंच पर बैठ गए और लगे अपने अतीत जीवन की पुस्तक के पृष्ठ पलटने। ज्योंही उनकी आवाज ऊँची हुई कि मेरा ध्यान भंग हो गया। यद्यपि उन्हें मेरी उपस्थिति का न तो कोई आभास ही था और न मुझ से कोई सरोकार ही; पर मुझे उनकी बातों में गहरी दिलचस्पी थी; क्योंकि बिना भोगे-भुगते ही उनके जीवन के अनुभूत खट्टे-मीठे व कड़वे अनुभवों का लाभ मुझे मिल रहा था। वे दिल खोल बोले जा रहे थे और मेरा मन उनकी बातें सुन-सुनकर विचार वीथियों में विचरण कर रहा था। ___ मुझे वही बैठे-बैठे उनकी सब बातें स्पष्ट सुनाई दे रही थी। आज उनकी बातचीत का विषय रोचक था, मनोरंजक था। वे दोनों अपनअपनी आलोचना कर रहे थे, अपने-अपने दोषों की समीक्षा कर रहे थे। अतः मैं उनकी बातों को विशेष ध्यान से सुनने लगा। __ पहला वृद्ध बोल रहा था - "बंधु! यद्यपि मेरा नाम सदासुखी है, पर मैंने जीवनभर दुःख ही दुःख भोगा है; पता नहीं, ज्योतिषीजी ने मेरा नाम 'सदासुखी' क्या सोचकर रखा होगा?' दूसरे वृद्ध ने भी अपने मित्र सदासुखी की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा - "तुम ठीक कहते हो, ये ज्योतिषी भी क्या बला हैं? देखो न! किसी ज्योतिषी ने मेरा नाम भी 'विवेकी' रख दिया, जबकि मेरे जीवन में अब तक मुझसे एक भी काम विवेक का नहीं हुआ। मेरा हर कदम अविवेक
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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