SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विदाई की बेला/१ स्वाभाविक है और बातों-बातों में बात का बढ़ जाना भी अस्वाभाविक नहीं है। कभी-कभी तो अनचाहे ही बात यहाँ तक बढ़ जाती है कि लोग मैंमैं, तू-तू पर उतर आते हैं, पुरखों तक पहुँच जाते हैं और फिर कषाय का चक्र इतनी तेजी से घूमता है कि न तो किसी को अपने छोटे-बड़ों का ही ध्यान रहता है और न किसी की मान-मर्यादा की परवाह ही। बस कुशल यह समझिए कि वे हाथापाई पर नहीं उतरते, अन्यथा वह भी असंभव नहीं है। ऐसे प्रसंग एक बार नहीं, दिन भर में अनेक बार बनते-बिगड़ते रहते हैं; क्योंकि परिस्थितियों की पराधीनता, विषयों का अनुराग व मोह की मार उन्हें बारंबार समझौता करने को बाध्य करते रहते हैं। अतः समझौता भी होता रहता है और बोलचाल भी चालू हो जाती है। ___इस तथ्य से इतना आश्वस्त तो हुआ ही जा सकता है कि ये लड़ाईयाँ लंबी चलने वाली लड़ाइयाँ नहीं हुआ करती हैं, पर इस कसमकश से भी तो लोग छुटकारा पाना चाहते हैं; भले ही थोड़ी देर को ही सही। इसलिए शाम होते ही सभी सेवानिवृत्त और वृद्ध व्यक्ति अपनी-अपनी मित्रमंडली के साथ और प्रौढ़ व युवक अपने-अपने परिवारों के साथ सैर-सपाटे के लिए बाग-बगीचों की ओर चल पड़ते। विदाई की बेला/१ और ध्यान करने योग्य शांत और एकांत जगह देखकर एक स्थान पर बैठ गया। __ थोड़ी ही देर में दो वृद्ध व्यक्ति भी वहाँ आ पहुँचे और मुझसे केवल दस कदम की दूरी पर हरी-भरी दूब देख जमीन पर ही पैर पसार कर बैठ गये और कोसने लगे जमाने को। कभी महंगाई का रोना रोते तो कभी वर्तमान शिक्षा के दोषों पर दो-दो आँसू बहाते । कभी नेताओं के शिथिलाचार पर चर्चा करते, तो कभी नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर आगबबूला हो-होकर उनकी माँ-बहिन और बेटी से सीधा संपर्क करके अपनी जुबान को गंदा करने लगते । कभी अपने घर की दास्तान छेड़ देते तो कभी घर-घर की कहानियाँ लेकर बैठ जाते । इस तरह मुझे ऐसा लगा कि संभवतः वे लोग प्रतिदिन इसी तरह की बेबुनियाद बातों में अपना बहुमूल्य समय व्यतीत किया करते होंगे। उस दिन भी घर-बाहर, राज-काज और अड़ौसी-पड़ौसी के गुणदोष ही उनकी बातचीत और शोध-खोज के विषय बने हुए थे। मानों उनके पास इसके सिवाय करने के लिए अन्य कुछ काम ही नहीं था, विचार-विमर्श व बातें करने के लिए अन्य कोई विषय ही नहीं था। ___ "भला जिनके पैर कब्र में लटके हों, जिनको यमराज का बुलावा आ गया हो, जिनके सिर के सफेद बाल मृत्यु का संदेश लेकर आ धमके हों, जिनके अंग-अंग ने जवाब दे दिया हो, जो केवल कुछ ही दिनों के मेहमान रह गये हों, परिजन-पुरजन भी जिनकी चिर विदाई की मानसिकता बना चुके हों, अपनी अन्तिम विदाई के इन महत्वपूर्ण क्षणों में भी क्या उन्हें अपने परलोक के विषय में विचार करने के बजाय इन व्यर्थ की बातों के लिए समय हैं?" - यह सोच-सोच कर मेरा मन व्यथित होने लगा। मेरा तत्त्व-चिन्तन और आत्मा-परमात्मा का ध्यान करने का विचार तो एक ओर धरा रह गया, मेरे मन में नाना विकल्प उठने लगे - "आखिर उस दिन भी ‘एक पंथ दो काज' की उक्ति को चरितार्थ करते हुए प्रायः सभी लोग उस पहाड़ी की सौन्दर्य छटा देखने के लिए निकल पड़े थे। मेरे लिए वह स्थान एकदम नया था, अतः मैं भी उस पहाड़ी के सौन्दर्य की अनुपम छटा देखने का लोभ संवरण नहीं कर सका; इस कारण कोई साथी न मिलने पर भी मैं अकेला ही उस उपवन में जा पहुँचा, जहाँ से वह सूर्यास्त का दृश्य स्पष्ट दिखाई देता था। पाँच-सात मिनट में ही उस दृश्य को देखकर मैं उस सुरम्य उपवन में चिन्तन-मनन (6)
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy