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विदाई की बेला/१३ जो कार्य जिसके द्वारा, जिस विधि से, जिस समय, जिन कारणों के माध्यम से होना है, वह कार्य उसी के द्वारा, उसी विधि से, उसी समय, उन्हीं कारणों के माध्यम से होता ही है; उसे किसी भी प्रकार टाला नहीं जा सकता।
आचार्यों के कथनों को स्मरण करते हुए वह अपने मन को समझाता है। हे मन! तू अन्य विकल्प छोड़ और श्री गुरुओं के उन कथनों पर विचार कर, जिसमें वस्तु के स्वतंत्र परिणमन की स्पष्ट उद्घोषणा की गई है।
स्वामी कार्तिकेय कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहते हैं - "जं जस्स जम्मि देसे, जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । णादं जिणेण णियदं, जम्मं वा अहव मरणं वा ।। त तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । को सक्कदि वारेदुं इंदो वा तह जिणिन्दो वा ।। जिस जीव का जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म-मरण जिनदेव ने नियतरूप से जाना है, उस जीव का उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से वह अवश्य होता है, उसे इंद्र अथवा जिनेन्दर टालने में समर्थ नहीं हैं, अन्य की तो बात ही क्या है।
ज्ञानी विचार करता है कि तीन लोक में जितने पदार्थ हैं, वे सब अपने-अपने स्वभाव से परिणमन करते हैं, कोई किसी का कर्ता-भोक्ता नहीं है। जब यह शरीर स्वयं ही उत्पन्न होता है और स्वयं ही बिछुड़ता है, स्वयं ही गलता है, स्वयं ही बढ़ता है तो फिर मैं इस शरीर का कर्ताभोक्ता कैसे?
इस स्थिति में मेरे रखने से वह शरीर कैसे रहे? वस्तुतः मैं इसमें कुछ भी फेर-बदल या परिवर्तन नहीं कर सकता।
मैं तो मात्र अपने ज्ञायकस्वभाव का ही कर्ता-भोक्ता हूँ। उसी का वेदन व अनुभव करता हूँ, कर सकता हूँ। इस शरीर के नष्ट हो जाने से मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं और इसके रहने से कुछ भी लाभ नहीं।
विदाई की बेला/१३
वैसे भी यह देह अत्यन्त अपवित्र है, अस्थिर है, घिनावनी है, इसमें रंच-मात्र भी सार नहीं है। चमड़े में लिपटी सुन्दर दीखने वाली यह देह सात कुधातुओं से भरी हुई मल-मूत्र की मूर्ति ही है। इसके नव द्वारों से दिन-रात ऐसा मैल बहता रहता है, जिसके नाम लेने से ही घृणा उत्पन्न होती है, जिसे अनेक व्याधियाँ (बीमारियाँ) निरन्तर लगी रही हैं। उस देह में रहकर आज तक कौन सुखी हुआ है?
इसका स्वरूप रमने योग्य नहीं है, अपितु छोड़ने योग्य है। अतः हे भव्य प्राणियो! इस मानव तन को पाकर महातप करो; क्योंकि इस देह पाने का सार तो आत्महित कर लेने में ही है। ___इस तरह संसार, शरीर और आत्मा के स्वरूप के यथार्थ ज्ञान हो जाने से भेद-विज्ञानी सम्यग्दृष्टि मृत्यु से नहीं डरता।
जिसे जगत हौवा समझ बैठा है, वह मृत्यु ज्ञानी को मित्र के समान हितकारी प्रतीत होती है। क्यों न हो? होना ही चाहिए। क्योंकि वह जानता है कि यह मृत्यु ही मुझे इस घृणित जीर्ण-शीर्ण, दुःखद देह-रूप कारागृह से मुक्त कराती है।
जिस देह को अज्ञानी अपना जानकर, अपना मानकर उसमें रमा रहता है। उस देह के संबंध में यदि जरा भी गहराई से विचार करें तो ज्ञात हो जायेगा कि इसमें क्या-क्या गंदगी भरी है? इसकी असलियत क्या है? यह काया कितनी क्षण भंगुर व नाशवान है? निम्नांकित पंक्तियों से यह बात और अधिक स्पष्ट हो जाती है - जिस देह को निज जानकर, नित रम रहा जिस देह में। जिस देह को निज मानकर, रच-पच रहा जिस देह में।। जिस देह में अनुराग है, एकत्व है जिस देह में । क्षण एक सोचा कभी क्या-क्या भरा उस देह में।।
और भी देखिए क्या-क्या कहा है इस देह के बारे में हमारे मनीषियों ने -
देह अपावन अथिर घिनावनी, यामें सार न कोई। सागर के जल सों शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई।।
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