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विदाई की बेला/१३
इसप्रकार मृत्यु पर आँसू बहाने वाले मिथ्यादृष्टि एवं मृत्यु को महोत्सव में बदल देने वाले सम्यग्दृष्टि की स्थिति को तथा उनकी वर्तमान भूमिका को स्पष्ट करते हुए मैंने अपने उस दीक्षांत भाषण में आगे कहा -
“सम्यग्दृष्टि भगवान आत्मा को ज्ञानज्योतिस्वरूप चैतन्य देव के रूप में देखता है। वह अपने स्वरूप को परद्रव्यों से पृथक, रागादि से रहित, शाश्वत ज्ञाता-दृष्टा ही जानता है, मानता है तथा मृत्यु को केवल देह से देहान्तर होने रूप क्रिया मानता है। इस कारण वह मृत्यु से नहीं डरता। जबकि मिथ्यादृष्टि को अनादि से देह में अपनापन होने से उसे मृत्यु में अपना सर्वस्व लुटा-लुटा-सा लगता है, सर्वस्व समाप्त हुआ सा प्रतीत होता है, इस कारण उसका दुःखी होना, भयभीत होना भी स्वाभाविक ही है।"
सम्यग्दृष्टि तो समय-समय पर शरीर के संबंध में यह विचार करके विरक्त रहता है कि - “आज तक इतने वर्षों से मेरे संयोग में रह रहे इस शरीर के अनन्त पुद्गल परमाणुओं का मेरे अनुकूल परिणमन हो कैसे रहा है? इसमें यदि किसी को आश्चर्य हो तो हो; इनके विघटने में क्या आश्चर्य!"
"नौ दरवाजों का पिंजरा, तामें सुआ समाय।
उड़वे को अचरज नहीं, अचरज रहवे माहिं ।।" अतः उसे मृत्युभय नहीं होता।
ज्ञानी विचार करता है कि - "जिसप्रकार जिस मिट्टी के सांचे में शुद्ध चाँदी की मूर्ति बनाई जाती है, ढाली जाती है, वह साँचा टूटने पर चाँदी की मूर्ति नहीं टूटती, वैसे ही शरीररूपी सांचे में आत्मा की मूर्ति विराजती है, जो कभी नहीं टूटती-फूटती।"
सम्यग्दृष्टि को देह में आत्मबुद्धि नहीं रहती। वह देह की नश्वरता, क्षण-भंगुरता से भली भाँति परिचित होता ही है, उसकी जड़ता-अचेतनता से भी परिचित हो जाता है।
विदाई की बेला/१३
पर व पर्याय से भेदज्ञान होने से उसे अपने आत्मा में ही अपनापन रहता है। अतः श्रद्धा व विवेक के स्तर पर उसे मृत्युभय नहीं होता।
संभव है, कोई सम्यग्दृष्टि भी आचरण के स्तर पर उसे मृत्यु को महोत्सव की तरह नहीं मना पाये । उसे भी बाहर से मिथ्यादृष्टि की तरह
आँसू बहाते देखा जा सकता है। पुराणों में भी ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। रामचन्द्रजी क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे, फिर भी छह महीने तक लक्ष्मण के शव को कंधे पर ढोते फिरे।
कविवर बनारसीदास की मरणासन्न विपन्न अवस्था देखकर लोगों ने यहाँ तक कहना प्रारंभ कर दिया था कि - "पता नहीं इनके प्राण किस मोह-माया में अटके हैं?"
लोगों की इस टीका-टिप्पणी को सुनकर उन्होंने संकेत द्वारा स्लेटपट्टी माँगी और उस पर लिखा :
ज्ञान कुतक्का हाथ, मारि अरि मोहना। प्रगट्यो रूप स्वरूप अनंत सु सोहना ।। जा परजे को अन्त सत्यकरि जानना।
चले बनारसी दास, फेर नहिं आवना ।। मृत्यु के समय ज्ञानी की आँखों में आँसू देखकर ही उसे अज्ञानी नहीं मान लेना चाहिए; क्योंकि उसके अभी केवल अनन्तानुबंधी क्रोधादि कषायों का ही तो अभाव हुआ है। अप्रत्याख्यानादि तीन कषायों की चौकड़ी तो अभी भी उसके विद्यमान हैं, अतः श्रद्धा तो ज्ञानी की सिद्धों के समान निर्मल हो गई है, पर चारित्रगुण में अभी कमजोरी है, इस कारण वियोगजनित क्षणिक दुःख का वेग आ जाना अस्वाभाविक नहीं है। अपनी श्रद्धा को मजबूत करने के लिए वह बारम्बार अपने मन को समझाते हुए कहता है -
हमको कछु भय ना रे! जाकरि जैसे जाहि समय में जो होतब जा द्वार, सो बनि है, टरि है कछु नाहिं, कर लीनों निरधार । हमको कछु भय ना रे! जान लियो संसार ।।
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