________________
तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२
तीर्थंकर भगवान महावीर
जिसमें सबका उदय हो वही सर्वोदय है। तीर्थंकर महावीर ने जिस सर्वोदय तीर्थ का प्रणयन किया, उसके जिस धर्मतत्त्व को लोक के सामने रखा, उसमें किसी प्रकार की संकीर्णता और सीमा नहीं थी। आत्मधर्म सभी आत्माओं के लिए हैं। धर्म को मात्र मानव से जोड़ना भी एक प्रकार की संकीर्णता है। वह तो प्राणीमात्र का धर्म है। 'मानव धर्म शब्द भी पूर्ण उदारता का सूचक नहीं है। वह भी धर्म के क्षेत्र को मानव समाज तक ही सीमित करता है जबकि धर्म का संबंध समस्त चेतन जगत से है, क्योंकि सभी प्राणी सुख और शान्ति से रहना चाहते हैं।
तीर्थंकर भगवान महावीर ने प्रत्येक वस्तु की पूर्ण स्वतंत्र सत्ता प्रतिपादित की है और यह भी स्पष्ट किया है कि प्रत्येक वस्तु स्वयं परिणमनशील है। उसके परिणमन में पर-पदार्थ का कोई हस्तक्षेप नहीं है। यहाँ तक कि परमपिता परमेश्वर (भगवान) भी उसकी सत्ता का कर्ताहर्ता नहीं है। जन-जन की ही नहीं, अपितु कण-कण की स्वतंत्र सत्ता की उदघोषणा तीर्थंकर महावीर की वाणी में हुई। दूसरों के परिणमन या कार्य में हस्तक्षेप करने की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण है; क्योंकि सब जीवों के दुःख-सुख, जीवन-मरण का कर्ता दूसरे को मानना अज्ञान है। सो ही कहा है
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय -
कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।। अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य,
___कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् ।।' यदि एक प्राणी को दूसरे के दुःख-सुख और जीवन-मरण का कर्ता माना जाय तो फिर स्वयंकृत शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होंगे। क्योंकि प्रश्न यह है कि हम बरे कर्म करें और कोई दूसरा व्यक्ति, चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, क्या वह हमें सुखी कर सकता है? इसी प्रकार हम अच्छे कार्य करें
और कोई व्यक्ति, चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, क्या हमारा बुरा कर सकता है? यदि हाँ, तो फिर अच्छे कार्य करना और बुरे कार्यों से डरना व्यर्थ है, क्योंकि उनके फल को भोगना तो आवश्यक है नहीं? और यदि यह सही है कि हमें अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा तो फिर हस्तक्षेप की कल्पना निरर्थक है। इसी बात को अमितगति आचार्य ने इसप्रकार व्यक्त किया है:१ आचार्य अमृतचंद्र : समयसार कलश, १६८
स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा,
फलं दतीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं,
स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा। निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो,
नकोपिकस्यापि ददाति किंचन् । विचारयन्नेवमनन्यमानसः,
परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ।। अन्त में ७२ वर्ष की आयु में दीपावली के दिन इस युग के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर ने भौतिक देह को त्याग कर निर्वाण प्राप्त किया। उसी दिन उनके प्रथम शिष्य इन्द्रभूति गौतम को पूर्णज्ञान (केवलज्ञान) की प्राप्ति हुई। जैन मान्यतानुसार दीपावली महापर्व भगवान महावीर के निर्वाण एवं उनके प्रमुख शिष्य गौतम को पूर्णज्ञान की प्राप्ति के उपलक्ष्य में ही मनाया जाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान महावीर का जीवन आत्मा से परमात्मा बनने के क्रमिक विकास की कहानी है।
प्रश्न - १. तीर्थंकर भगवान महावीर का संक्षिप्त जीवन परिचय अपने शब्दों में दीजिए। २. भगवान महावीर के कितने गणधर थे? नाम सहित बताइये। ३. बालक वर्धमान के गर्भ में आने के पूर्व उनकी माँ ने कितने और कौन-कौन से
स्वप्न देखे थे? ४. भगवान महावीर के मुख्य उपदेश क्या-क्या थे?
31
१ भावना द्वाविंशतिका (सामायिक पाठ), छन्द ३०-३१