SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ तीर्थंकर भगवान महावीर एक छन्द प्रस्तुत किया एवं अपने को महावीर का शिष्य बताते हुए उसका अर्थ समझने की जिज्ञासा प्रकट की। वह श्लोक इस प्रकार है : त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्कायलेश्याः। पंचान्ये चास्तिकाया व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेदाः ।। इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोक्तमर्हदभिरीशैः। प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ।। इन्द्रभूति विचारमग्न हो सोचने लगे - ये छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय आदि क्या है? अपने तत्संबंधी अज्ञान को दर्प में दबाते हुए इन्द्रभूति ने इन्द्रसे कहा - इस सम्बन्ध में मैं तुम्हारे गुरु से ही चर्चा करूँगा। चलो! वे कहाँ हैं? मैं उन्हीं के पास चलता हूँ। इन्द्रभूति के सद्धर्म प्राप्ति का काल आ गया था, साथ ही भगवान की दिव्य-ध्वनि खिरने का काल भी आ चुका था। समवशरण के निकट आते ही उनके विचारों में कठोरता का स्थान कोमलता ने ले लिया। मानस्तंभ को देखते ही उनका मान गल गया और उन्होंने भगवान महावीर के पास दीक्षा ले ली। उनकी योग्यता और भगवान महावीर की महत्ता ने उन्हें प्रथम गणधर बनाया। इसके अतिरिक्त उनके दस गणधर और थे. जिनके नाम हैं :- (१) अग्निभूति (२) वायुभूति (३) आर्यव्यक्त (४) सुधर्मा (५) मंडित (६) मौर्यपुत्र (७) अकंपित (८) अचलभ्राता (९) मेतार्य और (१०) प्रभास । श्रावक शिष्यों में मगध सम्राट महाराजा श्रेणिक (विम्बसार) प्रमुख थे। लगातार तीस वर्ष तक सारे भारतवर्ष में उनका विहार होता रहा। उनका उपदेश इस प्रकार होता था कि सब अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते थे। उनके उपदेश को दिव्य-ध्वनि कहा जाता है। उन्होंने अपनी दिव्यवाणी में जीवादि सर्व द्रव्यों की पूर्ण रूप से स्वतंत्रता की घोषणा की। उनका कहना था कि प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है, कोई किसी के आधीन नहीं है। पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने का मार्ग स्वावलम्बन है। रंग, राग और भेद से भिन्न शुद्ध निजात्मा पर दृष्टि केन्द्रित करना ही स्वावलम्बन है। अपने बल पर ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। अनन्त सुख और स्वतंत्रता भीख में प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है और न उसे दूसरों के बल पर ही प्राप्त किया जा सकता है। सब आत्माएँ स्वतंत्र भिन्न-भिन्न हैं; एक नहीं, पर वे एक-सी अवश्य है. बराबर हैं, कोई छोटी-बड़ी नहीं। अतः उन्होंने कहा :१. अपने समान दूसरी आत्माओं को जानो। २. सब आत्माएँ समान हैं, पर एक नहीं। ३. यदि सही दिशा में पुरुषार्थ करे तो प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकता है। ४. प्रत्येक प्राणी अपनी भूल से स्वयं दुःखी है और अपनी भूल सुधार कर सुखी भी हो सकता है। भगवान महावीर ने जो कहा वह कोई नया सत्य नहीं था। सत्य में नयेपुराने का भेद कैसा? उन्होंने जो कहा वह सदा से है, सनातन है। उन्होंने सत्य की स्थापना नहीं, सत्य का उद्घाटन किया है। उन्होंने कोई नया धर्म स्थापित नहीं किया। धर्म तो वस्तु के स्वभाव को कहते हैं । वस्तु का स्वभाव बनाया नहीं जा सकता । जो बनाया जा सके वह स्वभाव कैसा? वह तो जाना जाता है। कर्तृत्व के अहंकार एवं अपनत्व के ममकार से दूर रह कर जो स्व और पर को समग्र रूप से अप्रभावित होकर एक समय में परिपूर्ण जाने, वही भगवान है। तीर्थंकर भगवान वस्तु स्वरूप को जानते हैं, बताते हैं, बनाते नहीं। वे तीर्थंकर थे। उन्होंने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया उन्होंने जो उपदेश दिया उसे आचार्य समन्तभद्र ने सर्वोदय तीर्थ कहा है : सर्वान्तवत् तद्गुणमुख्यकल्पम् । सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् ।। सर्वापदामन्तकरं निरन्तम्। सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।। हे भगवान महावीर! आपका सर्वोदय तीर्थ सर्व धर्मों को लिए हुए हैं। उसमें मुख्य और गौण की विवक्षा से कथन है, अतः कोई विरोध नहीं आता; किन्तु अन्य वादियों के कथन निरपेक्ष होने से सम्पूर्णतः वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं। आपका शासन (तत्त्वोपदेश) सर्व आपदाओं का अन्त करने में और समस्त संसारी प्राणियों को संसारसागर से पार करने में समर्थ है, अतः सर्वोदय तीर्थ है। १ युक्त्यनुशासन, श्लोक ६२ 30
SR No.008383
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size146 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy