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________________ ३६ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ षट् कारक प्रवचनकार : जो क्रिया का जनक हो, क्रियानिष्पत्ति में प्रयोजक हो, उसको कारक कहते हैं। 'करोति क्रियां निवर्तयतीति कारकः' ऐसी उसकी व्युत्पत्ति है। तात्पर्य यह है कि जो किसी न किसी रूप में क्रिया-व्यापार के प्रति प्रयोजक होता है, कारक वही हो सकता है, अन्य नहीं। कारक छह हैं - (१) कर्ता (२) कर्म (३) करण (४) सम्प्रदान (५) अपादान और (६) अधिकरण। जो स्वतंत्रतया (स्वाधीनता से) करता है वह कर्ता है; कर्ता जिसे प्राप्त करता है वह कर्म है; साधकतम अर्थात् उत्कृष्ट साधन को करण कहते हैं; कर्म जिसे दिया जाता है अथवा जिसके लिए किया जाता है वह सम्प्रदान है; जिसमें से कर्म किया जाता है वह ध्रुववस्तु अपादान है; और जिसमें अर्थात् जिसके आधार से कर्म किया जाता है वह अधिकरण है। ये छह कारक व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार के हैं। जहाँ पर के निमित्त से कार्य की सिद्धि लगती है, वहाँ व्यवहार कारक है; और जहाँ अपने ही उपादानकरण से कार्य की सिद्धि कही जाती है, वहाँ निश्चय कारक हैं। व्यवहार कारकों को इस प्रकार घटित किया जाता है :- कुम्हार कर्ता है; घड़ा कर्म है; दंड, चक्र इत्यादि करण है; कुम्हार जल भरने वाले के लिए घड़ा बनाता है, इसलिए जल भरने वाला सम्प्रदान है; टोकरी में से मिट्टी लेकर घड़ा बनाता है, इसलिए टोकरी अपादान है; और पृथ्वी के आधार पर घड़ा बनाता है, इसलिए पृथ्वी अधिकरण है। यहाँ सभी कारक भिन्न-भिन्न हैं। परमार्थतः कोई द्रव्य किसी का कर्ता-हर्ता नहीं हो सकता, इसलिए छहों व्यवहार कारक असत्यार्थ हैं। वे मात्र उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से कहे जाते हैं। निश्चय से किसी द्रव्य का अन्य द्रव्य के साथ कारकता का सम्बन्ध है ही नहीं। निश्चय कारकों को इस प्रकार घटित करते हैं :- मिट्टी स्वतंत्रतया घड़ारूप कार्य को प्राप्त होती है, इसलिए मिट्टी कर्ता है और घड़ा कर्म है, अथवा घड़ा मिट्टी से अभिन्न है इसलिए मिट्टी स्वयं ही कर्म है; अपने परिणमन स्वभाव से मिट्टी ने घड़ा बनाया, इसलिए मिट्टी स्वयं ही करण है; मिट्टी ने घड़ारूप कर्म अपने को ही दिया, इसलिए मिट्टी स्वयं सम्प्रदान है। मिट्टी ने अपने में से पिण्डरूप अवस्था नष्ट करके घटरूप कार्य किया और स्वयं ध्रुव बनी रही, इसलिए वह स्वयं ही अपादान है। मिट्टी ने अपने ही आधार से घड़ा बनाया, इसलिए स्वयं ही अधिकरण है। इस प्रकार निश्चय से छहों कारक एक ही द्रव्य में है। परमार्थतः एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की सहायता नहीं कर सकता और द्रव्य स्वयं ही, अपने को, अपने से, अपने लिए, अपने में से, अपने में करता है, इसलिए निश्चय छह कारक ही परम सत्य हैं। उपरोक्त प्रकार से द्रव्य स्वयं ही अपनी अनंतशक्ति रूप सम्पदा से परिपूर्ण है, इसलिए स्वयं ही छह कारक रूप होकर अपना कार्य करने के लिए समर्थ है, उसे बाह्य सामग्री कोई सहायता नहीं कर सकती। इसलिए केवलज्ञान प्राप्ति के इच्छुक आत्मा को बाह्य सामग्री की अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरर्थक है। शुद्धोपयोग में लीन आत्मा स्वयं ही छह कारक रूप होकर केवलज्ञान प्राप्त करता है। वह आत्मा स्वयं अनन्तशक्तिवान ज्ञायक-स्वभाव से स्वतंत्र है, इसलिये स्वयं ही कर्ता है; स्वयं अनन्तशक्तिवाले केवलज्ञान को प्राप्त करने से केवलज्ञान कर्म है, अथवा केवलज्ञान से स्वयं अभिन्न होने से आत्मा स्वयं ही कर्म है; अपने अनन्तशक्तिवाले परिणमन स्वभावरूप उत्कृष्ट साधन से केवलज्ञान को प्रगट करता है, इसलिये आत्मा स्वयं ही संप्रदान है; अपने में से मतश्रुतादि अपूर्णज्ञान दूर करके केवलज्ञान प्रगट करता है और स्वयं सहज ज्ञानस्वभाव के द्वारा ध्रुव रहता है, इसलिए स्वयं ही अपादान है; अपने में ही अर्थात् अपने ही आधार से केवलज्ञान प्रगट करता है इसलिये स्वयं ही अधिकरण है। इस प्रकार स्वयं छह कारक रूप होता है, इसलिए वह स्वयंभू' कहलाता है। जिज्ञासु यह तो आत्मा की शुद्ध पर्याय की बात हुई । आत्मा के विकारी भावों और ज्ञानावरणादि कर्मों में तो परस्पर कारकता का सम्बन्ध पाया ही जाता है। प्रवचनकार - नहीं । सर्व द्रव्यों की प्रत्येक पर्याय में छह कारक निश्चय से स्वयं के स्वयं में वर्तते हैं, इसलिए आत्मा और पुद्गल चाहे वे शुद्ध दशा में हों या अशुद्ध 19
SR No.008383
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size146 KB
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