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तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२
षट् कारक
संवत् ९९० में हुए देवसेनाचार्य ने अपने 'दर्शनसार' नामक ग्रंथ में तत्सम्बन्धी उल्लेख इस प्रकार किया है :
जड पउमणंदिणाहो,सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ।। श्री सीमंधर स्वामी से प्राप्त हुए दिव्यज्ञान द्वारा श्री पद्मनंदिनाथ (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव) ने बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते?
इनका वास्तविक नाम पद्यनंदि है। कौण्डकुण्डपुर के वासी होने से इन्हें कुन्दकुन्दाचार्य कहा जाने लगा।
कुन्दकुन्दाचार्यदेव के निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध हैं - समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहड़, द्वादशानुप्रेक्षा और दशभक्ति। रयणसार और मूलाचार भी उनके ही ग्रंथ कहे जाते हैं। कहते हैं उन्होंने चौरासी पाहड़ लिखे थे। यह भी कहा जाता है कि इन्होंने 'षट्खण्डागम' के प्रथम तीन खण्डों पर 'परिकर्म' नामक टीका लिखी थी, जो उपलब्ध नहीं है।
समयसार जैन अध्यात्म का प्रतिष्ठापक अद्वितीय महान शास्त्र है। प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में जैन सिद्धान्तों का विशद विवेचन है। उक्त तीनों को नाटकत्रयी, प्राभृतत्रयी और कुन्दकुन्दत्रयी भी कहा जाता है। उक्त तीनों ग्रंथों पर आचार्य अमृतचंद्र ने संस्कृत भाषा में गंभीर टीकाएँ लिखी हैं। इन पर आचार्य जयसेन की संस्कृत टीकाएँ भी उपलब्ध है।
करीब चालीस वर्ष से आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ने जन-जन की वस्तु बना दिया है। उन्होंने उन पर प्रवचन किए, सस्ते सुलभ प्रकाशन कराए तथा सोनगढ़ (सौराष्ट्र) में परमागम मंदिर का निर्माण कराके उसमें संगमरमर के पाटियों पर समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और नियमसार संस्कृत टीका सहित तथा अष्टपाहड उत्कीर्ण करा कर उन्हें भौतिक दृष्टि से भी अमर कर दिया है। उक्त परमागम मंदिर एक दर्शनीय तीर्थ बन गया है।
प्रस्तुत पाठ कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार व पंचास्तिकाय एवम् उनकी टीकाओं के आधार पर लिखा गया है। जैन अध्यात्म और सिद्धान्त का मर्म जानने के लिए पाठकों को कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का गंभीर अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
षट् कारक प्रवचनकार
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदधाइकम्ममलं ।
पणमामि वड्ढ़माणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।।१।। यह प्रवचनसार नामक महाशास्त्र है। इसे आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने आज से करीब दो हजार वर्ष पूर्व बनाया था। जैसा महान यह ग्रंथराज है वैसी ही तत्त्वप्रदीपिका नामक महान टीका संस्कृत भाषा में आचार्य अमृतचंद्र ने इस पर लिखी है। इसके तीन महा अधिकार है :
(१) ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन (२) ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन (३) चरणानुयोगसूचक चूलिका
यहाँ इसके ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार की गाथा १६वीं चलती है। इसमें यह बताया गया है कि शुद्धोपयोग से होने वाली शुद्धात्मा की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष होने से अत्यन्त स्वाधीन है। लेश मात्र भी पराधीन नहीं है। तात्पर्य यह है कि अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति के लिए रंचमात्र भी पर के सहयोग की आवश्यकता नहीं है । गाथा इस प्रकार है -
तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो।
भूदो सयमेवादा हवदि सयंभुत्ति णिद्दिट्ठो ।।१६।। स्वभाव को प्राप्त आत्मा सर्वज्ञ और सर्वलोकपतिपूजित स्वयमेव हुआ होने से स्वयंभू है - ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
आचार्य यहाँ यह कहना चाहते हैं कि निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का कोई सम्बन्ध नहीं है। शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के लिए यह जीव बाह्य सामग्री (पर पदार्थों के सहयोग) की आकांक्षा से व्यर्थ ही दुखी हो रहा है। जिज्ञासु :
कारकता का सम्बन्ध क्या वस्तु है? कारक किसे कहते हैं? कृपया यह समझाइये।
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