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________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ उपादान-निमित्त निमित्त कहे जाते हैं तथापि कार्योत्पत्ति में सभी निमित्त धर्मास्तिकाय के समान उदासीन ही हैं। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा है - नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति। निमित्तमात्रमन्यस्तु, गतेधर्मास्तिकायवत् ।।३५।। अज्ञ को उपदेशादि निमित्तों द्वारा विज्ञ नहीं किया जा सकता और न ही विज्ञ को अज्ञ ही कह सकते हैं क्योंकि परपदार्थ तो निमित्त मात्र हैं जैसे कि स्वयं चलते हुए जीव और पुद्गलों को धर्मास्तिकाय होता है। इसी को स्पष्ट करते हुए इसकी संस्कृत टीका में लिखा है - “यहाँ यह शंका हो सकती है कि यों तो बाह्य निमित्तों का निराकरण ही हो जायगा। इसका उत्तर दिया है - अन्य जो गुरु आदि तथा शत्रु आदि हैं वे प्रकत कार्य के उत्पादन में तथा विध्वंसन में सिर्फ निमित्त मात्र हैं। वस्तुतः किसी कार्य के होने व बिगड़ने में उसकी योग्यता ही साक्षात् साधक होती जिज्ञासु चारण ऋद्धिधारी मुनियों का उपदेश पाकर तो भगवान महावीर के जीव ने अपनी पूर्व शेर की पर्याय में आत्महित किया था। उसका ही परिणाम है कि वह जीव आगे जाकर भगवान महावीर बना । आप उपदेश रूप निमित्त का निषेध क्यों करते हैं? प्रवचनकार - हम उपदेश रूप निमित्त का निषेध कब करते हैं? हम तो निमित्त के कर्तृत्व का निषेध करते हैं। यदि उपदेश से ही आत्महित होता है तो उपदेश तो बहुत जीव सुनते हैं, सबका हित क्यों नहीं हो जाता? भगवान महावीर के जीव का हित मारीचि के भव में ही क्यों नहीं हो गया? क्या वहाँ सनिमित्तों की कमी थी? पिता चक्रवर्ती भरत, धर्मचक्र के आदि प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव बाबा। भगवान ऋषभदेव के समवशरण में उनका उपदेश सुनकर तो उसने विरोध भाव उत्पन्न किया था। क्या उनके उपदेश में कोई कमी थी? क्या चारण ऋद्धिधारी मुनियों का उपदेश उनसे भी अच्छा था? इसी से सिद्ध होता है कि जब उपादान की तैयारी हो तब कार्य होता ही है और उस समय योग्य निमित्त भी होता ही है, उसे खोजने नहीं जाना पड़ता है। क्रूर शेर की पर्याय में घोर वन में उपदेश का कहाँ अवसर था? पर उसका पुरुषार्थ जगा तो निमित्त आकाश से उतर कर आए। इसीलिए तो कहा था कि आत्मार्थी को निमित्तों की खोज में व्यग्र नहीं होना चाहिए। 'निमित्त नहीं होता' यह कौन कहता है? पर निमित्तों को खोजना भी नहीं पड़ता है। जब उपादान में कार्य होता है तो तदनुकूल निमित्त होता ही है। निमित्तों के अनुसार कार्य नहीं होता है, कार्य के अनुसार निमित्त कहा जाता है। वेश्या के मृत शरीर को देखकर रागी को राग और वैरागी को वैराग्य उत्पन्न होता है। वह वेश्या रागी के राग और वैरागी के वैराग्य का निमित्त कही जाती है। यदि निमित्त के अनुसार कार्य होता हो तो उसे देखकर प्रत्येक को या तो राग ही उत्पन्न होना चाहिये या फिर वैराग्य ही। आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी कहते हैं - “परद्रव्य कोई जबरन तो बिगाड़ता नहीं है, अपने भाव बिगड़े तब वह भी बाह्य निमित्त है तथा इसके निमित्त बिना भी भाव बिगड़ते हैं, इसलिये नियमरूप से निमित्त भी नहीं है। इस प्रकार परद्रव्य का तो दोष देखना मिथ्याभाव है।" न तो निमित्त उपादान में बलात् कुछ करता है और न ही उपादान किन्हीं निमित्तों को बलात् लाता या मिलाता है। दोनों का सहज ही सम्बन्ध होता है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की सहजता को पंडित टोडरमलजी ने इस प्रकार स्पष्ट किया है - “यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यम से जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्य-सामग्री को मिलावे तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिए और बलवानपना भी चाहिए; सोतो है नहीं,सहज ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। जब उन कर्मों का उदयकाल हो, उस काल में स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता है तथा जो अन्य द्रव्य हैं वे वैसे ही सम्बन्ध रूप होकर परिणमित होते हैं..... जिस प्रकार सूर्य के उदय के काल में चकवा-चकवियों का संयोग होता है, वहाँ रात्रि में किसी ने द्वेषबुद्धि से बलजबरी करके अलग अलग नहीं किये हैं, दिन में किसी ने करुणाबुद्धि से लाकर मिलाये नहीं हैं; सूर्योदय को निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं। ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है। उस ही प्रकार कर्म का भी निमित्त-नैमित्तिक भाव १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, २४३ २. वही, २५-२६ 14
SR No.008383
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size146 KB
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