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तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग - २
जिस पदार्थ में कार्य निष्पन्न होता है उसे उपादान और उस कार्य को उपादेय कहते हैं और निमित्त की अपेक्षा कथन करने पर उसी कार्य को नैमित्तिक कहते हैं
। एक ही कार्य को उपादानकारण की अपेक्षा कथन करने पर उपादेय और निमित्तकारण की अपेक्षा कथन करने पर नैमित्तिक कहा जाता है।
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जिज्ञासु -
उपादान - उपादेय और निमित्त नैमित्तिक को कृपया उदाहरण देकर समझा दीजिए ।
प्रवचनकार -
सुनो ! जैसे 'घट' कार्य का उपादानकारण मिट्टी रूप द्रव्य है। यहाँ 'मिट्टी' उपादान है, अतः इसकी अपेक्षा कथन करने पर 'घट' कार्य 'उपादेय' कहा जायगा तथा 'घट' कार्य के कुम्हार, चक्रादि निमित्तकारण है। निमित्तों की अपेक्षा कथन करने पर उसी 'घट' कार्य को 'नैमित्तिक' कहा जायगा ।
यहाँ उपादेय शब्द का प्रयोग 'ग्रहण करने योग्य' इस अर्थ में नहीं है। यहाँ तो निमित्त की अपेक्षा जिस कार्य को नैमित्तिक कहा जाता है, उसे ही अपने उपादान की अपेक्षा उपादेय कहा जाता है। आशा है अब आप लोगों की समझ में आ गया होगा ।
जिज्ञासु -
आ गया ! अच्छी तरह आ गया ! !
प्रवचनकार
तो, 'स्वर्णहार' और 'सम्यग्दर्शन' रूप कार्य पर उपादान - उपादेय और निमित्तनैमित्तिक घटाइये । विज्ञासु
स्वर्ण रूप द्रव्य उपादान है और 'हार' (स्वर्णहार) उपादेय है। आग, सुनार आदि निमित्त हैं और 'हार' नैमित्तिक है। इसी प्रकार आत्मद्रव्य या श्रद्धा गुणउपादान है और सम्यग्दर्शन उपादेय हैं। मिथ्यात्वकर्म का अभाव निमित्त हैं। और सम्यग्दर्शन नैमित्तिक है।
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प्रवचनकार बहुत अच्छा !
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उपादान - निमित्त
शंकाकार
उपादान यदि 'द्रव्य' या 'गुण' है तो वह सदा काल विद्यमान रहता है, अतः विवक्षित कार्य सदा होता रहना चाहिए।
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प्रवचनकार
उपादान दो तरह का होता है।
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(१) त्रिकाली उपादान (२) क्षणिक उपादान ।
जो द्रव्य या गुण स्वयं कार्यरूप परिणमित हो उसे त्रिकाली उपादानकारण कहते हैं।
क्षणिक उपादानकारण को दो तरह से स्पष्ट किया जाता है:
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१. द्रव्य और गुणों में अनादि अनन्त पर्यायों का प्रवाहक्रम चलता रहता है। उस अनादि अनन्त प्रवाहक्रम में अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण है और अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय कार्य है।
२. उस समय की पर्याय की उस रूप होने की योग्यता क्षणिक उपादानकारण है और वह पर्याय कार्य है।
क्षणिक उपादानकारण को समर्थ उपादानकारण भी कहते हैं। त्रिकाली उपादानकारण तो सदा विद्यमान रहता है, यदि उसे ही पूर्ण समर्थकारण मान लिया जाय तो विवक्षित कार्योत्पत्ति का सदा प्रसंग आयगा । अतः अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय एवं उस समय उस पर्याय के उत्पन्न होने की स्वयं की योग्यता ही समर्थ उपादानकारण हैं, जिनके बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है। और जिनके होने पर नियम से कार्य की उत्पत्ति होती है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अनन्तर पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य उपादान है और अनन्ततर उत्तर पर्याय विशिष्ट द्रव्य उपादेय है। अनुकूल बाह्य पदार्थ निमित्त है और विवक्षित कार्य नैमित्तिक है।
शंकाकार
निमित्त भी दो प्रकार के होते हैं! उदासीन और प्रेरक । प्रवचनकार
हाँ, निमित्तों का वर्गीकरण भी उदासीन और प्रेरक इन दो रूपों में किया जाता है। यद्यपि धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और कालद्रव्य इच्छाशक्ति से रहित और निष्क्रिय होने से उदासीन निमित्त कहे जाते हैं तथा जीवद्रव्य इच्छावान और क्रियावान होने से एवं पुद्गलद्रव्य क्रियावान होने से प्रेरक
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