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________________ २० तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ पुण्य और पाप वाला एक मात्र शुद्धोपयोग ही है, शुभोपयोग ही है, शुभोपयोग और अशुभोपयोग नहीं। शिष्य - सिष्य कहै स्वामी तुम करनी असुभ सुभ, कीनी है निषेध मेरे संसे मन मांही है। मोख के सधैया ग्याता देसविरती मुनीस, तिनकी अवस्था तौ निरावलंब नांही है ।। गुरु - कहे गुरु करम कौ नास अनुभौ अभ्यास, ऐसो अवलंब उनही कौ उन पांही है। निरुपाधि आतम समाधि सोई सिवरूप, _ और दौर धूप पुद्गल परछांही है।।८।। यह सुनकर शिष्य कहता है कि हे गुरुदेव! आपने शुभ और अशुभ को समान बताकर दोनों का निषेध कर दिया है। अतः मेरे मन में एक संशय उत्पन्न हो गया है कि मोक्षमार्ग की साधना करने वाले अविरति सम्यग्दृष्टि (चतुर्थगुणस्थानवर्ती), अणुव्रती (पंचमगुणस्थानवर्ती), और महाव्रती (षष्ठगुणस्थानवर्ती) जीवों की अवस्था बिना अवलम्बन के तो रह नहीं सकती हैं; उन्हें तो व्रत, शील, संयम, दया, दान, जप, तप, पूजनादिक का अवलम्बन चाहिये ही। अतः आप इन कर्मों का निषेध क्यों करते हैं? इसका उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि हे भाई! ऐसा नहीं है। क्या मुक्तिमार्ग के पथिक जीवों का अवलम्बन पुण्य-पाप रूप है? अरे, उनका अवलम्बन तो उनका ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा है, जो सदा विद्यमान है। कर्मों का अभाव तो आत्मानुभव एवं उसके अभ्यास से होता है। अतः उनके निरावलम्बन होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। मोह-राग-द्वेष रहित आत्मा में समाधि लगाना ही मुक्ति का कारण एवं मोक्ष का स्वरूप है, व्रतादिक के विकल्प और जड़ की क्रिया तो पुद्गल की परछाईं है। कहा भी है: करम सुभासुभ दोइ, पुद्गल पिंड विभाव मल। इन सौ मुकति न होइ, नहिं केवल पद पाइए।।११।। शुभ और अशुभ ये दोनों कर्म मल हैं, पुद्गल पिण्ड हैं और आत्मिक विभाव हैं। इनसे केवलज्ञान एवं मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। शिष्य - कोऊ शिष्य कहै स्वामी! अशुभक्रिया असुद्ध, शुभक्रिया सुद्ध तुम ऐसी क्यौं न बरनी। गुरु - गुरु कहै जबलौं क्रिया के परिनाम रहैं, तबलौं चपल उपयोग जोग धरनी ।। थिरता न आवै तोलौं सुद्ध अनुभौ न होइ, यात दोऊ क्रिया मोख-पंथ की कतरनी। बंध की करैया दोऊ दुह में न भली कोऊ, बाधक विचारि मैं निसिद्ध कीनी करनी ।।१२।। इतना सुनने पर कोई समझौतावादी शिष्य सलाह देता हुआ कहता है कि हे गुरुदेव! आप शुभक्रिया शुद्ध और अशुभक्रिया अशुद्ध है, ऐसा क्यों नहीं कहते हैं? उसको समझाते हुए गुरुदेव कहते हैं कि हे भाई! जबतक शुभाशुभ क्रिया के परिणाम रहते हैं तब तक योग (मन, वचन, काय) और उपयोग (ज्ञानदर्शन) में चंचलता बनी रहती है। जब तक योग और उपयोग में स्थिरता नहीं आती है तब तक शुद्धात्मा का अनुभव नहीं होता है। अतः शुभाशुभ दोनों ही क्रियाएँ मोक्षमार्ग को काटने में कैंची के समान हैं। दोनों ही बंध को करने वाली हैं। दोनों में कोई भी अच्छी नहीं है। मैंने दोनों का निषेध मोक्षमार्ग में बाधक जानकर ही किया है। इस प्रकार पंडित बनारसीदासजी ने आगमानुकूल अपना दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। इसी संदर्भ में आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी लिखते हैं : "तथा आस्रवतत्त्व में जो हिंसादिरूप पापास्रव हैं उन्हें हेय जानता है; अहिंसादिरूप पुण्यास्रव हैं उन्हें उपादेय मानता है। परन्तु यह तो दोनों ही कर्मबंध के कारण हैं, इनमें उपादेयपना मानना वही मिथ्यादष्टि है। ....... इस प्रकार अहिंसावत् सत्यादिक तो पुण्यबंध के कारण हैं और हिंसावत् असत्यादिक पापबंध के कारण हैं। ये सर्व मिथ्याध्यवसाय हैं, वे सब त्याज्य हैं। इसलिए हिंसादिवत् अहिंसादिक को भी बंध का कारण जानकर हेय ही मानना.. जहाँ वीतराग होकर दृष्टा-ज्ञातारूप प्रवर्ते वहाँ निर्बध है सो उपादेय है। सो ऐसी दशा न हो तब तक प्रशस्त रागरूप प्रवर्तन करो, परन्तु 1
SR No.008383
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size146 KB
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