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________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ महाकवि बनारसीदास ने कुन्दकुन्दाचार्यदेव के समयसार नामक ग्रंथराज पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा लिखित आत्मख्याति टीका एवं कलशों के आधार पर नाटक समयसार में पुण्य-पाप सम्बन्धी हेयोपादेय व्यवस्था की गुरु-शिष्य के संवाद के रूप में विस्तार से चर्चा की है, जो इस प्रकार है :शिष्य कोऊ सिष्य कहै गुरु पाहीं, पाप पुन्न दोऊ सम नाही। कारण रस सुभाव फलन्यारे, एक अनिष्ट लगैं इक प्यारे ।।४।। संकलेस परिनामनि सौं पाप बंध होइ, विसुद्ध सौं पुन्न बंध हेतु-भेद मानियै। पाप के उदै असाता ताकौ है कटुक स्वाद, पुन्न उदै साता मिष्ट रस भेद जानिये । पाप संकलेस रूप पुन्न है विसुद्ध रूप, दुहूं कौ सुभाव भिन्न भेद यौं बखानियै । पाप सौं कुगति होइ पुन्न सौं सुगति होइ; एसौ फलभेद परतच्छि परमानियै ।।५।। कोई शिष्य गुरु से कहता है कि पाप और पुण्य दोनों समान नहीं हैं क्योंकि उनके कारण, रस, स्वभाव और फल भिन्न-भिन्न हैं। पाप अनिष्ट प्रतीत होता है और पुण्य प्रिय लगता है। संक्लेश परिणामों से पाप बंध होता है और विशुद्ध परिणामों से पुण्य बंध । इस प्रकार दोनों में कारण भेद विद्यमान हैं। पाप के उदय से दुःख होता है, जिसका स्वाद कटुक होता है और पुण्य के उदय से सुख होता है, जिसका स्वाद मधुर है; इस प्रकार दोनों में रस भेद पाया जाता है। पाप परिणाम स्वयं संकलेशरूप हैं और पुण्यभाव विशुद्धरूप हैं, अतः दोनों में स्वभाव भेद भी विद्यमान है। पाप से नरकादि कुगतियों में जाना पड़ता है और पुण्य से देवादि सुगति की प्राप्ति होती है; इस प्रकार दोनों में फलभेद भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। फिर आप दोनों को समान कैसे कहते हैं? पाप बंध पुन्न बंध दुहूँ मैं मुकति नाहि, _ कटुक मधुर स्वाद पुग्गल कौ पेखिए। संकलेस विसुद्ध सहज दोऊ कर्मचाल, कुगति सुगति जगजाल मैं विसेखिए ।। पुण्य और पाप कारनादि भेद तोहि सूझत मिथ्यात्व मांहि, ऐसौ द्वैत भाव ग्यान दृष्टि मैं न लेखिए। दोऊ महा अंधकूप दोऊ कर्मबंधरूप, दुहं को विनास मोख मारग मैं देखिए ।।६।। इसके उत्तर में गुरु कहते हैं कि पापबंध और पुण्यबंध दोनों ही मुक्ति के मार्ग में बाधक हैं, अतः दोनों समान ही हैं। कटुक और मधुर स्वाद भी पुद्गलजन्य हैं, तथा संक्लेश और विशुद्ध भाव दोनों ही विभाव भाव हैं; अतः ये भी समान ही हैं । कुगति और सुगति दोनों चतुर्गतिरूप संसार में ही हैं, अतः फल भेद भी नहीं है। पुण्य-पाप में कारण, रस, स्वभाव और फल भेद वस्तुतः हैं नहीं; मिथ्यात्व के कारण अज्ञानी को मात्र दिखाई देते हैं, ज्ञानी को ऐसे भेद दृष्टिगत नहीं होते हैं। पुण्य और पाप दोनों ही अंधकूप हैं, दोनों ही कर्मबंधरूप हैं और मोक्षमार्ग में दोनों का ही अभाव देखा जाता है। मोक्षमार्ग में तो एक शुद्धोपयोग ही उपादेय है :सील तप संजम विरति दान पूजादिक, अथवा असंजम कषाय विषैभोग है। कोऊ सुभ रूप कोऊ असुभ स्वरूप मूल, वस्तु के विचारत दुविध कर्मरोग है।। ऐसी बंधपद्धति बखानी वीतरागदेव, आतम धरम मैं करम त्याग-जोग है। भौ-जल-तरैया, राग-द्वेष कौ हरैया महा मोख को करैया एक सुद्ध उपयोग है।।७।। शील, तप, संयम, व्रत, दान, पूजा आदि अथवा असंयम, कषाय, विषय-भोग आदि इनमें कोई शुभ रूप है और कोई अशुभ रूप है किन्तु मूल वस्तु के विचार करने पर दो प्रकार का कर्म रोग ही है।' भगवान वीतरागदेव ने ऐसी ही बंध की पद्धति कही है। पुण्य-पाप दोनों को बंधरूप व बंध का कारण कहा है, अतः आत्म-धर्म (आत्मा का हित करने वाले धर्म) में तो सम्पूर्ण शुभ-अशुभ कर्म त्यागने योग्य हैं। संसार-समुद्र से पार उतारने वाला, राग-द्वेष को समाप्त करने वाला और मोक्ष को प्राप्त कराने १. बनारसीदास ने पुण्य को अकर रोग और पाप को कंप रोग कहा है। देखिए नाटक समयसार, उत्थानिका, छन्द ४०-४१ 10
SR No.008383
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size146 KB
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