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पाँच पाण्डव
तत्वज्ञान पाठमाला, भाग-१
राजा विराट की रानी का नाम था सुदर्शना और उसका भाई था कीचक। उसने द्रौपदी को साधारण मालिन समझा था। अतः द्रौपदी को अनेक प्रकार के लोभ दिखाकर अपना बुरा भाव प्रगट करने लगा। द्रौपदी ने यह बात अपने जेठ भीम से कही। भीम ने उससे कहा कि तुम उससे नकली स्नेहपूर्ण बात बनाकर मिलने का स्थान और समय निश्चित कर लेना। फिर मैं सब देख लूँगा। पापी कीचक को अपने किए की सजा मिलनी ही चाहिये।
रमेश - फिर क्या हुआ?
अध्यापक - फिर क्या ? द्रौपदी ने नकली स्नेह द्वारा उससे रात्रि का समय व एकान्त स्थान निश्चित कर लिया, फिर भीम द्रौपदी के कपडे पहिन कर निश्चित स्थान पर निश्चित समय के पूर्व ही पहँच गये।
कामासक्त कीचक जब वहाँ पहुँचा तो द्रौपदी को वहाँ आई जान बहुत प्रसन्न हुआ और उससे प्रेमालाप करने लगा, किन्तु उस पापी को प्रेमालाप का उत्तर जब भीम के कठोर मुष्ठिका-प्रहारों से मिला तो तिलमिला गया। उसने अपनी शक्ति अनुसार प्रतिरोध करने का बहुत यत्न किया पर भीम के आगे उसकी एक न चली और निर्मद दीन-हीन दशा में देख दयाल भीम ने भविष्य में ऐसा काम न करने की चेतावनी देकर छोड़ दिया। उसे अपने किये की सजा मिल गई।
सुरेश - उसके बाद पाण्डवों का क्या हुआ?
अध्यापक - उसके बाद वे अपने मामा के यहाँ द्वारिका चले गये। द्वारकाधीश कृष्ण के पिता वसुदेव और भगवान नेमिनाथ के पिता समुद्रविजय पाण्डवों के मामा थे। उन्होंने बहिन सहित आये अपने भानजों का बहुत आदर-सत्कार
राजा हुए तो पाण्डवों को स्वभावत: ही हस्तिनापुर का महामण्डलेश्वर पद प्राप्त हुआ। युधिष्ठिर गंभीर प्रकृति के सहज धर्मानुरागी न्यायवंत राजा थे, अत: वे धर्मराज युधिष्ठिर के नाम से जाने जाते थे। भीम में शारीरिक बल अतुलनीय था तथा वे मल्लविद्या में अद्वितीय थे एवं अर्जुन अपनी बाणविद्या में जगत प्रसिद्ध धनुर्धर थे। वे बहुत काल तक शांतिपूर्वक राज्य सुख भोगते रहे।
रमेश-फिर?
अध्यापक - फिर क्या ? बहुत काल बाद द्वारिका-दाह की भयंकर घटना ने उनके हृदय को झकझोर दिया और उनका चित्त संसार से उदास हो गया । एक दिन वे विरक्त-हृदय पाण्डव भगवान नेमिनाथ की वन्दना के लिए सपरिवार उनके समवशरण में गये। वहाँ भगवान की दिव्यध्वनि को सुनकर उनका वैराग्य और अधिक प्रबल हो गया। दिव्यध्वनि में आ रहा था कि - भोगों में सच्चा सुख नहीं है, सच्चा सुख आत्मा में है। आत्मा का हित तो आत्मा को समझकर उससे भिन्न समस्त पर-पदार्थों से ममत्व हटाकर ज्ञान-स्वभावी आत्मा में एकाग्र होने में है। लौकिक लाभ-हानि तो पुण्य-पाप का खेल है, उसमें आत्मा का हित नहीं। यह आत्मा व्यर्थ ही पुण्य के उदय में हर्ष और पाप के उदय में विषाद मानता है। मनुष्य-भव की सार्थकता तो समस्त जगत से ममत्व हटाकर आत्म-केन्द्रित होने में है।
भगवान की दिव्यवाणी सुनकर पाँचों पाण्डवों ने उसी समय भगवान से भवभ्रमण का नाश करनेवाली दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली तथा उनकी माता कुन्ती एवं द्रौपदी, सुभद्रा आदि अनेक रानियों ने आर्यिका राजमती (राजुल) के पास आर्यिका के व्रत स्वीकार कर लिये।
सुरेश - फिर?
अध्यापक - फिर क्या ? पाँचों पाण्डव मुनिराज आत्म-साधना में तत्पर हो घोर तपश्चरण करने लगे। एक दिन वे शत्रुजय गिरि पर ध्यानमग्न थे। उसीसमय वहाँ दुर्योधन का वंशज यवरोधन आया और पाण्डवों को ध्यान अवस्था में देखकर उसका क्रोध प्रज्वलित हो गया। वह सोचने लगा ये ही वे दुष्ट पाण्डव हैं, जिन्होंने हमारे पूर्वज दुर्योधनादि कौरवों की दुर्दशा की थी। अभी ये निःसहाय हैं, हथियार विहीन हैं, इस समय इनसे बदला लेना चाहिये और इन्हें
किया।
सुरेश - गुरुजी ! कौरवों और पाण्डवों का आपस में बड़ा भारी युद्ध भी तो हुआ था ?
अध्यापक - हाँ ! हुआ था, पर वह युद्ध मात्र कौरव और पाण्डवों का ही नहीं था। उस युद्ध में तो सम्पूर्ण भारतवर्ष ही उलझ गया था, क्योंकि उस युद्ध में पाण्डवों के साथ नारायण श्रीकृष्ण एवं कौरवों के साथ प्रतिनारायण जरासन्ध हो गये थे; अत: उस युद्ध ने नारायण और प्रतिनारायण के महायुद्ध का रूप ले लिया था। जब उस युद्ध में नारायण श्रीकृष्ण की विजय हुई और वे त्रिखण्डी अर्द्धचक्रवर्ती
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