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पाँच पाण्डव
तत्त्वज्ञान पाठमाला, भाग-१
___ अध्यापक - नहीं भाई, सुनो ! उन्होंने बुरा काम तो किया ही। इसप्रकार की हिंसात्मक प्रवृत्तियों से ही देश और समाज नष्ट होते हैं। पाण्डव तो सुरंग मार्ग से निकल गये पर लोगों ने यही जाना कि पाण्डव जल गये हैं। कौरवों की इस काण्ड से लोक में बहुत निन्दा हुई, पर वे प्रसन्न थे। दुर्जनों की प्रवृत्ति ही हिंसा में आनन्द मानने की होती है। रमेश - फिर पाण्डव लोग कहाँ चले गये?
अध्यापक - कुछ काल तो वे गुप्तवास में रहे और घूमते-घूमते राजा द्रुपद की राजधानी माकन्दी पहुँचे। वहाँ राजा द्रुपद की पुत्री का स्वयंवर हो रहा था, जिसमें धनुष चढ़ाने वाले को द्रौपदी वरेगी - ऐसी घोषणा की गई थी। उक्त स्वयंवर में दुर्योधनादि कौरव भी आये हुए थे, पर किसी से भी वह देवोपुनीत धनुष नहीं चढ़ाया गया। आखिर में अर्जुन ने उसे क्रिडामात्र में चढ़ा दिया और द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाल दी।
रमेश - हमने तो सुना है कि द्रौपदी ने पाँचों पाण्डवों को वरा था?
अध्यापक - नहीं भाई ! द्रौपदी तो महासती थी। उसने तो अर्जुन के कण्ठ में वरमाला डाली थी। वह तो युधिष्ठिर और भीम को जेठ होने से पिता के समान एवं नकुल व सहदेव को देवर होने से पुत्र के समान मानती थी।
सुरेश - तो फिर ऐसा क्यों कहा जाता है ?
अध्यापक - भाई ! बात यह है कि जब द्रौपदी अर्जुन के गले में वरमाला डाल रही थी तो वरमाला का डोरा टूट गया और कुछ फूल बिखर कर पास में स्थित चार पाण्डवों पर भी गिर गये और उनसे जलन रखनेवाले तथा द्रौपदी प्राप्त करने की आशा से आये हुए लोगों ने अपवाद फैला दिया कि उसने पाँचों पाण्डवों को वरा है।
पाण्डव विप्र वेश में थे। अत: वहाँ उपस्थित राजागण व दुर्योधनादि कौरव कोई भी उन्हें पहिचान नहीं पाये, दुर्योधनादि को यह अच्छा न लगा कि उनकी उपस्थिति में एक साधारण विप्र द्रौपदी को वर ले जावे। अतः उसने सब राजाओं को भड़काया कि महाप्रतापी राजाओं की उपस्थिति में एक साधारण विप्र को द्रौपदी वरण करे - यह सब राजाओं का अपमान है।
परिणामस्वरूप दुर्योधनादि सहित उपस्थित सब राजागण और पाण्डवों में भयंकर युद्ध हुआ।
धनुर्धारी अर्जुन के सामने जब कोई भी धनुर्धारी टिक न सका, तब स्वयं गुरु द्रोणाचार्य युद्ध करने आये। सामने गुरुदेव को खड़ा देख अर्जुन विनय से नम्रीभूत हो गया और गुरु को नमस्कार कर बाण द्वारा परिचय पत्र गुरुदेव के पास भेजा।
गुरु द्रोण को जब यह पता चला कि अर्जुन आदि पाण्डव अभी जीवित हैं तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने सबसे यह समाचार कहा। एक बार फिर गुरु द्रोण एवं भीष्म पितामह ने कौरव और पाण्डवों में मेल-मिलाप करा दिया।
इसप्रकार पुनः कौरव और पाण्डवों का मिलाप हुआ तथा वे दुबारा आधाआधा राज्य लेकर हस्तिनापुर में रहने लगे।
सुरेश- गुरुदेव! आपने तो पाण्डवों के जुआ खेलने की बात कही थी, वह तो इस कहानी में कहीं आई ही नहीं ? ___ अध्यापक - हाँ, सुनो ! एक दिन दुर्योधन और युधिष्ठिर शर्त लगाकर 'पासों का खेल' खेल रहे थे। उन्होंने पासों के खेल ही में १२ वर्ष के राज्य को भी दाव पर लगा दिया। दुर्योधन कपट से दाव जीत गया और युधिष्ठिरादि पाण्डवों को १२ वर्ष के लिये राज्य छोड़कर अज्ञातवास में रहना पड़ा।
इसलिये तो कहा है - 'शर्त लगाकर कोई काम करना यानी जुआँ खेलना सब अनर्थों की जड़ है।' आत्मा का हित चाहनेवाले पुरुष को इससे सदा दूर ही रहना चाहिये। देखो ! महाबलधारी एवं उसी भव से मोक्ष जानेवाले युधिष्ठिरादि को भी इसके सेवन के फलस्वरूप बहुत विपत्तियों का सामना करना पड़ा। रमेश - तो फिर वे बारह वर्ष तक कहाँ रहे ?
अध्यापक - कोई एक जगह थोड़े ही रहे। वेश बदलकर जगह-जगह घूमते रहें।
सुरेश - हमने सुना है कि भीम बहुत बलवान था। उसने महाबली कीचक को बहुत पीटा था।
अध्यापक - हाँ ! यह घटना भी उनके बारहवर्षीय अज्ञातवास के काल में ही घटी थी। जब वे विचरते-विचरते विराटनगर पहुंचे तो गुप्तवेश में ही राजा विराट के यहाँ विविध पदों पर काम करने लगे। युधिष्ठिर पण्डित बनकर, भीम रसोइयाँ बनकर, अर्जुन नर्तकी बनकर और नकुल तथा सहदेव अश्वशाला के अधिकारी बन कर रहे। द्रौपदी भी मालिन बनकर रहने लगी।
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