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चार अभाव
तत्त्वज्ञान पाठमाला, भाग-१
आचार्य समन्तभद्र - १) प्रागभाव न मानने पर समस्त कार्य (पर्यायें) अनादि सिद्ध होंगे।
२) प्रध्वंसाभाव के न मानने पर सर्व कार्य (पर्यायें) अनन्तकाल तक रहेंगे।
३) अन्योन्याभाव के न मानने पर सब पुद्गलों की पर्यायें मिलकर एक हो जावेंगी अर्थात् सब पुद्गल सर्वात्मक हो जावेंगे।
४) अत्यन्ताभाव के न मानने पर सब द्रव्य अस्वरूप हो जावेंगे अर्थात् सब अपने-अपने स्वरूप को छोड़ देंगे; प्रत्येक द्रव्य की विभिन्नता नहीं रहेगी, जगत के सब द्रव्य एक हो जायेंगे। ___आशा है, चार अभावों का स्वरूप तुम्हारी समझ में अच्छी तरह आ गया होगा।
जिज्ञासु - जी हाँ, आ गया।
आचार्य समन्तभद्र - आ गया तो बताओ ! शरीर और जीव में कौनसा अभाव है?
जिज्ञासु- अत्यन्ताभाव। आचार्य समन्तभद्र - क्यों है ? जिज्ञासु - क्योंकि एक पुद्गल द्रव्य है और दूसरा जीव द्रव्य है और दो द्रव्यों के बीच होनेवाले अभाव को ही अत्यन्ताभाव कहते हैं।
आचार्य समन्तभद्र - पुस्तक और घड़े में कौनसा अभाव है ?
जिज्ञासु - अन्योन्याभाव, क्योंकि पुस्तक और घड़ा दोनों पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्यायें हैं।
आचार्य समन्तभद्र - 'आत्मा अनादि केवलज्ञान पर्यायमय है' - ऐसा माननेवाले कौनसा अभाव नहीं मानते हैं?
जिज्ञासु - प्रागभाव, क्योंकि केवलज्ञान ज्ञानगुण की पर्याय है; अतः केवलज्ञान होने से पूर्व की मतिज्ञानादि पर्यायों में उसका अभाव है।
आचार्य समन्तभद्र - 'यह वर्तमान राग मझे जीवन भर परेशा करेगा' - ऐसा माननेवाले ने कौनसा अभाव नहीं माना ?
जिज्ञासु - प्रध्वंसाभाव, क्योंकि वर्तमान राग का भविष्य की चारित्रगुण की पर्यायों में अभाव है; अत: वर्तमान राग भविष्य के सुख-दुःख का कारण नहीं हो सकता।
शंकाकार - इन चार प्रकार के अभावों को समझने से क्या लाभ है? आचार्य समन्तभद्र - अनादि से मिथ्यात्वादि महापाप करनेवाला आत्मा
पुरुषार्थ करे तो वर्तमान में उनका अभाव कर सम्यक्त्वादि धर्म दशा प्रगट कर सकता है, क्योंकि वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्यायों में अभाव है; अतः प्रागभाव समझने से 'मैं पापी हूँ, मैंने बहुत पाप किये हैं, मैं कैसे तिर सकता हूँ ?' आदि हीन भावना निकल जाती है। इसीप्रकार प्रध्वंसाभाव के समझने से यह ज्ञान हो जाता है कि वर्तमान में कैसी भी दीन-हीन दशा हो, भविष्य में उत्तम से उत्तम दशा प्रगट हो सकती है, क्योंकि वर्तमान पर्याय का आगामी पर्यायों में अभाव है, अत: वर्तमान पामरता को देखकर भविष्य के प्रति निराश न होकर स्वसन्मुख होने का पुरुषार्थ प्रगट करने का उत्साह जागृत होता है।
जिज्ञासु - अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव से ?
आचार्य समन्तभद्र - एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं है; क्योंकि उनमें आपस में अत्यन्ताभाव है - ऐसा समझने से 'दूसरा मेरा बुरा कर देगा' - ऐसा अनन्त भय निकल जाता है एवं 'दूसरे मेरा भला कर देंगे' - ऐसी परमुखापेक्षिता की वृत्ति निकल जाती है। इसीप्रकार अन्योन्याभाव के जानने से भी स्वाधीनता का भाव जागृत होता है, क्योंकि जब एक पुदगल की पर्याय, दूसरे पदगल की पर्याय से पूर्ण भिन्न एवं स्वतन्त्र है तो फिर यह आत्मा से तो जुदी है ही।
इसतरह चारों अभावों के समझने से स्वाधीनता का भाव जागृत होता है, पर से आशा की चाह समाप्त होती है, भय का भाव निकल जाता है, भूतकाल और वर्तमान की कमजोरी और विकार देखकर उत्पन्न होनेवाली दीनता समाप्त हो जाती है और स्वसन्मुख होने का पुरुषार्थ जागृत होता है।
आशा है, तुम्हारी समझ में इनके जानने से क्या लाभ है, यह आ गया होगा। जिज्ञासु - आ गया ! बहुत अच्छी तरह आ गया !! __ आचार्य समन्तभद्र - आ गया तो बताओ ! 'शरीर मोटा-ताजा हो तो आवाज भी बुलन्द होती है' - ऐसा माननेवाला क्या गलती करता है ?
जिज्ञासु - वह अन्योन्याभाव का स्वरूप नहीं जानता; क्योंकि शरीर का मोटा-ताजा होना, आहार वर्गणारूप पुद्गल का कार्य है और आवाज बुलन्द होना, भाषा वर्गणा का कार्य है। इसप्रकार आवाज और शरीर की मोटाई में अन्योन्याभाव है। ___ आचार्य समन्तभद्र - ‘ज्ञानावरण कर्म के क्षय के कारण आत्मा में केवलज्ञान होता है' - ऐसा माननेवाले ने क्या भूल की ?
जिज्ञासु - उसने अत्यन्ताभाव को नहीं जाना; क्योंकि ज्ञानावरण कर्म और
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