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तत्त्वज्ञान पाठमाला, भाग-१
सुख क्या है? __कुछ मनीषी इससे आगे बढ़ते हैं और कहते हैं - "भाई ! वस्तु (भोग सामग्री) में सुख नहीं है, सुख-दुःख तो कल्पना में है। वे अपनी बात सिद्ध करने को उदाहरण भी देते हैं कि एक आदमी का मकान दो मंजिल का है, पर उसके दाहिनी ओर पाँच मंजिला मकान है तथा बायीं ओर एक झोंपड़ी है। जब वह दायीं
ओर देखता है तो अपने को दु:खी अनुभव करता है और जब बायीं ओर देखता है तो सुखी; अत: सुख-दु:ख भोग-सामग्री में न होकर कल्पना में है। वे मनीषी सलाह देते हैं कि यदि सुखी होना है तो अपने से कम भोग-सामग्री वालों की ओर देखो, सुखी हो जाओगे। यदि तुम्हारी दृष्टि अपने से अधिक वैभववालों की ओर रही तो सदा दु:ख का अनुभव करोगे।"
सुख तो कल्पना में है, सुख पाना हो तो झोंपड़ी की तरफ देखो, अपने से दीन-हीनों की तरफ देखो, यह कहना असंगत है; क्योंकि दुखियों को देखकर तो लौकिक सज्जन भी दयार्द्र हो जाते हैं। दुखियों को देखकर ऐसी कल्पना करके अपने को सुखी मानना कि मैं इनसे अच्छा हूँ, उनके दु:ख के प्रति अकरुण भाव तो है ही, साथ ही मान कषाय की पुष्टि में संतुष्टि की स्थिति भी है। इसे सुख कभी नहीं कहा जा सकता। सुख क्या झोपड़ी में भरा है, जो उसकी ओर देखने से आ जावेगा? जहाँ सुख है, जब तक उसकी ओर दृष्टि नहीं जावेगी, तब तक सच्चा सुख प्राप्त नहीं होगा।
सुखी होने का यह उपाय भी सही नहीं है, क्योंकि यहाँ 'सुख क्या है ?' इसे समझने का यत्न नहीं किया गया है, वरन् भोगजनित सुख को ही सुख मानकर सोचा गया है। 'सुख कहाँ है ?' का उत्तर 'कल्पना में हैं' दिया गया है। 'सुख कल्पना में है' का अर्थ यदि यह लिया जाय कि सुख काल्पनिक है, वास्तविक नहीं, तो क्या यह माना जाय कि सुख की वास्तविक सत्ता है ही नहीं, पर यह बात संभवतः आपको स्वीकृत नहीं होगी। अतः स्पष्ट है कि भोग-प्राप्तिवाला सुख, जिसे इन्द्रिय-सुख कहते हैं, काल्पनिक है; तथा वास्तविक सुख इससे भिन्न है। वह सच्चा सुख क्या है ? मूल प्रश्न तो यह है।
कुछ लोग कहते हैं कि तुम यह करो, वह करो, तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी, तुम्हें इच्छित वस्तु की प्राप्ति होगी और तुम सुखी हो जाओगे। ऐसा कहनेवाले इच्छाओं की पूर्ति को ही सुख और इच्छाओं की पूर्ति न होने को ही दुःख मानते हैं।
एक तो इच्छाओं की पूर्ति संभव ही नहीं है, कारण की अनंत जीवों में प्रत्येक
की इच्छाएँ अनंत हैं और भोग सामग्री है सीमित तथा एक इच्छा की पूर्ति होते ही तत्काल दूसरी नई-नई इच्छा उत्पन्न हो जाती है। इसप्रकार कभी समाप्त न होनेवाला इच्छाओं का प्रपातवत् प्रवाहक्रम चलता ही रहता है। अत: यह तो निश्चित है कि नित्य बदलती हुई नवीन इच्छाओं की पूर्ति कभी संभव नहीं है। अत: तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी, इच्छाएं पूर्ण होगी और तुम सुखी हो जाओगे; ऐसी कल्पनाएँ मात्र मृग-मरीचिका ही सिद्ध होती हैं। न तो कभी संपूर्ण इच्छाएँ पूर्ण होनेवाली हैं और न ही जीव इच्छाओं की पूर्ति से सुखी होनेवाला है।
वस्तुत: तो इच्छाओं की पूर्ति में सुख है ही नहीं, यह तो सिर का बोझ कंधे पर रखकर सुख मानने जैसा है। यदि कोई कहे जितनी इच्छाएं पूर्ण होंगी, उतना तो सुख होगा ही, पूरा न सही- यह बात भी ठीक नहीं है; कारण कि सच्चा सुख तो इच्छाओं के अभाव में है, इच्छाओं की पूर्ति में नहीं; क्योंकि हम इच्छाओं की कमी (आंशिक अभाव) में आकुलता की कमी प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। अत: यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि इच्छाओं के पूर्ण अभाव में पूर्ण सुख होगा ही, यदि यह कहा जाय कि इच्छा पूर्ण होने पर समाप्त हो जाती है, अत: उसे सुख कहना चाहिए - यह कहना भी गलत है; क्योंकि इच्छाओं के अभाव का अर्थ इच्छाओं की पूर्ति होना नहीं, वरन् इच्छाओं का उत्पन्न ही नहीं होना है।
भोग-सामग्री से प्राप्त होनेवाला सुख वास्तविक सुख है ही नहीं, वह तो दुःख का ही तारतम्यरूप भेद है। आकुलतामय होने से वह दुःख ही है। सुख का स्वभाव तो निराकुलता है और इन्द्रियसुख में निराकुलता पाई नहीं जाती है। जो इंद्रियों द्वारा भोगने में आता है वह विषय सुख है। वह वस्तुतः दुःख का ही एक भेद है। उसका तो मात्र नाम ही सुख है। अतींद्रिय आनंद इंद्रियातीत होने से उसे इंद्रियों द्वारा नहीं भोगा जा सकता। जैसे आत्मा अतींद्रिय होने से इंद्रियों द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसीप्रकार अतींद्रिय सुख आत्मामय होने से इंद्रियों के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता।
जो वस्तु जहाँ होती है, उसे वहाँ ही पाया जा सकता है। जो वस्तु जहाँ हो ही नहीं, जिसकी सत्ता की जहाँ संभावना ही न हो, उसे वहाँ कैसे पाया जा सकता है? जैसे 'ज्ञान' आत्मा का एक गुण है, अत: ज्ञान की प्राप्ति चेतनात्मा में ही संभव है, जड़ में नहीं; उसीप्रकार 'सुख' भी आत्मा का एक गुण है, जड़ का नहीं। अत: सुख की प्राप्ति आत्मा में ही होगी, शरीरादि जड़ पदार्थों में नहीं। जिसप्रकार यह
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