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________________ सम्पादकीय अपने विद्यार्थी जीवन में जब मुझे आचार्यवादीभसिंह विरचित क्षत्रचूड़ामणि ग्रन्थ अध्यात्मरसिक मुनिराज श्री समन्तभद्र महाराज से पढ़ने का अवसर मिला था, तभी से मेरे मन में यह भावना थी कि इस ग्रन्थ में समागत सूक्तियों एवं सुभाषितों का अलग से प्रकाशन हो। दिसम्बर २००१ में जब यह ग्रन्थ भाषा टीकासहित प्रकाशित हुआ, तब पुन: मेरी यह भावना प्रबल हुई और फलस्वरूप यह कृति आपके करकमलों में है। सूक्ति' शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है - सु+ उक्ति; जिसमें 'सु' शब्द का अर्थ है - अच्छा अथवा हितकारी और उक्ति' शब्द का अर्थ है - कथन। इसप्रकार सूक्ति का शाब्दिक अर्थ होता है - हितकारी कथन । इनमें सार्वभौमिक, शाश्वत सत्य, सामाजिक-नैतिक मूल्य, आध्यात्मिक चिन्तन और साहित्यकार के अनुभवों का सार समाहित होता है। सूक्ति अमूल्य रत्न हैं । पृथ्वी पर तीन रत्न बताए गए हैं - जल, अन्न एवं सुभाषित (सुक्तियाँ) । सूक्ति और सुभाषित दोनों ही उद्देश्यों की अपेक्षा से समान हैं। अन्तर केवल इतना है कि सूक्ति श्लोकार्ध अथवा श्लोक के एक चरण में होती है और सुभाषित पूर्ण श्लोक होता है। ये दोनों मुक्तक काव्य में परिगणित होते हैं। दोनों की पद रचनाएँ पूर्ण होती हैं। इनमें परस्पर सम्बन्ध अपेक्षित नहीं होता। सूक्तियाँ मानव के अन्तर्निहित सौन्दर्य को व्यक्त करती है, सामाजिक जीवन को जीने योग्य बनाती हैं और अद्भुत आत्मविश्वास प्रदान कर कार्य करने की प्रेरणा देती हैं। सूक्तियों का आकार छोटा होता है, किन्तु प्रभाव बहुत बड़ा । इनको कण्ठस्थ करने में कठिनाई नहीं होती है तथा सभी वर्गों के दैनिक जीवन में इनका प्रयोग देखा जाता है। भारतीय वाङमय में सूक्तियों का प्रयोग प्राचीन काल से ही होता आ रहा है, इस दृष्टि से संस्कृत जैन साहित्य में क्षत्रचूड़ामणि एक अनुपम रचना है। इस ग्रन्थ में विभिन्न विषयों पर पद-पद पर सूक्तियों का प्रयोग हुआ है। इस कृति में सूक्तियाँ यथावत् ग्रन्थानुसार ही दी हैं मात्र उनका हिन्दी अनुवाद अपने शब्दों में रखा है। सूक्तियाँ अकारादि क्रमानुसार दी हैं, तथा प्रत्येक सूक्ति के अन्त में लम्ब (अध्याय) व श्लोक क्रमांक भी दिया है, जिससे पाठक मूल ग्रन्थ से भी मिलान कर सकें। लम्ब के क्रमानुसार दिए गए सुभाषितों के प्रकरण में प्रत्येक श्लोक के प्रारम्भ में उसकी विषयवस्तु को स्पष्ट करनेवाले प्रसंग-वाक्य अपनी तरफ से जोड़े गए हैं। श्लोक का अन्वयार्थ न करते हुए सीधे सरलार्थ ही दिया है, जिन्हें अन्वयार्थ देखने की जिज्ञासा हो, वे मूल ग्रन्थ से देख सकते हैं। सूक्ति एवं सुभाषितों के अनुवाद की भाषा को शुद्ध एवं सुगठित बनाने में पण्डित संजयकुमारजी शास्त्री बड़ामलहरा का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ है। टाइपसेटिंग का कष्टप्रद कार्य वीतराग-विज्ञान (मराठी) के प्रबन्ध सम्पादक पण्डित श्रुतेश सातपुते शास्त्री डोणगाँव ने अत्यन्त सावधानी से किया है - एतदर्थ मैं इन दोनों का हार्दिक आभारी हूँ। ___ श्री टोडरमल दिगम्बर जैन सिद्धान्त महाविद्यालय, जयपुर के होनहार छात्रों को सूक्तियाँ एवं सुभाषित विशेष उपयोगी रहेंगे - यह भावना भी इस कृति के संकलन में रही है; सामान्यजन तो लाभ लेंगे ही। ___मुझे पूर्ण विश्वास है कि आचार्य वादीभसिंह की इन सूक्तियों एवं सुभाषितों को जो अपने कण्ठ में रखेगा, उसका जीवन अवश्य सुधरेगा; उसकी चिन्तनशैली निर्मल होगी और उसे अनेक समस्याओं के समाधान भी सहज ही प्राप्त होंगे। जिनवाणी का पठन-पाठन करनेवालों को तो यह कृति विशेष उपयोगी सिद्ध होगी ही। समाज में काव्यरसिक, गुणग्राही एवं प्रशस्त विचारकों की कमी नहीं है, उनको अच्छे विषय प्रदान करनेवालों की कमी कदाचित् हो सकती है। सभी पाठकों से मेरा निवेदन है कि वे स्वयं इसे पढ़ें और अन्य लोगों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करें। अस्तु! - ब्र. यशपाल जैन
SR No.008381
Book TitleSuktisangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages37
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size197 KB
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