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सूक्तिसंग्रह उससे दूर ही रहते हैं; उसीप्रकार भावी विपत्ति के दु:ख से दु:खी होना समझदार पुरुषों का काम नहीं, अपितु भविष्यकालीन विपत्ति के दुःख से अज्ञानी ही दुःखी होते हैं। ६४. विपत्ति से बचने का सही उपाय -
विपदस्तु प्रतीकारो निर्भयत्वं न शोकिता।
तच्च तत्त्वविदामेव तत्त्वज्ञाः स्यात् तद्बुधाः ।।१७।। विपत्ति से बचने का उपाय निर्भयपना ही है, शोक करना नहीं; और वह निर्भयता तत्त्वज्ञानियों में होती है। अत: सभी को तत्त्वज्ञानी होना चाहिए। ६५. आशा ही सुखनाशक -
लोकद्वयहितायात्मन्नैराश्यनिरतो भव ।
धर्मसौख्यच्छिदाशा ते तरुच्छेदः फलार्थिनाम् ।।२३।। जिस वृक्ष से फल चाहते हैं, उसी वृक्ष को काटने के समान आशा धर्म और सुख की नाशक है। अतएव हे आत्मन् ! आत्मकल्याण के लिए दोनों लोकों में विषय-भोग एवं धन की इच्छा को छोड़ो।
लम्ब५
मृत्यु के समय जिस मन्त्र को सुनने मात्र से कुत्ता भी देव हो गया, वह णमोकार मन्त्र किस विवेकवान के द्वारा जपने योग्य नहीं है? ६८. मित्र का सच्चा स्वरूप -
समदुःखसुखा एव बन्धवो ह्यत्र बान्धवाः।
दूता एव कृतान्तस्य द्वन्द्वकाले पराङ्गखा ।।३२।। इस संसार में सुख में और दु:ख में समानरूप से साथ रहनेवाले ही सच्चे मित्र और बन्धु हैं; किन्तु आपत्ति आ जाने पर साथ छोड़कर भाग जानेवाले लोग तो मानो साक्षात् यम के ही दूत हैं।
लम्ब-५ ६९. मानसिकपीड़ा का कारण -
गुणाधिक्यं च जीवानामाधेरेव हि कारणम् ।
नीचत्वं नाम किं नुस्यादस्ति चेद्गुणरागिता ।।५।। गुणीजनों के गुण नीच व्यक्तियों के लिए मानसिक पीड़ा का कारण होते हैं; किन्तु यदि गुणग्रहणता का भाव हो तो नीचता टिक ही नहीं सकती। ७०. नीच मनुष्य की मनोवृत्ति -
उपकारोऽपि नीचानामपकाराय कल्पते।
पन्नगेन पय: पीतं विषस्यैव हि वर्धनम् ।।६।। जैसे सर्प को पिलाया गया दूध विष की ही वृद्धि करता है; वैसे ही नीच मनुष्यों के प्रति किया गया उपकार अपकार के लिए ही होता है। ७१. सज्जन और दुर्जन का स्वभाव
वारि हंस इव क्षीरं सारं गृह्णाति सज्जनः।
यथाश्रुतं यथारुच्यं शोच्यानां हि कृतिर्मता ।।१८।। जिसप्रकार हंस मिले हुए दूध और पानी में से मात्र दूध को ग्रहण कर लेता है; उसीप्रकार सज्जन भी सारभूत अंश को ग्रहण करता है; किन्तु दुर्जन लोग जनश्रुति और अपनी रुचि के अनुसार ही कार्य करते हैं।
लम्ब-४ ६६. धर्महीन जीवों की पापप्रवृत्ति -
निर्निमित्तमपि घ्नन्ति हन्त जन्तूनधार्मिकाः।
किं पुन: कारणाभासे नो चेदत्र निवारकः ।।५।। धर्म के स्वरूप को न समझनेवाले पापी लोग अकारण ही प्राणियों को मार डालते हैं। इस पर भी उन्हें यदि कोई झूठा ही कारण मिल जाए और कोई रोकनेवाला भी न हो, तब तो फिर कहना ही क्या ? ६७. णमोकार महामन्त्र का जाप उपयोगी -
मरणक्षणलब्धेन येन श्वा देवताजनि । पञ्चमन्त्रपदं जप्यमिदं केन न धीमता ।।१०।।