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________________ ५४ सूक्तिसंग्रह मनुष्यों को धन कमाने से अधिक उसकी रक्षा करने में तथा रक्षा करने से भी अधिक उसके नाश होने पर उत्तरोत्तर अनन्तगुनी पीड़ा होती है। ५६. धनरक्षा का उपाय - यथाशक्तिः प्रतिकारः करणीयस्तथापि चेत् । व्यर्थ: किमत्र शोकेन यदशोकः प्रतिक्रियाः ।।६८।। मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार ऐसा उपाय करना चाहिए कि धन का नाश न हो; किन्तु यदि उपाय असफल हो जाए तो शोक नहीं करना चाहिए; क्योंकि शोक का प्रतिकार शोक नहीं करने में है। लम्ब-३ ५७. धन की सत्ता और वृद्धि के लिए कमाना आवश्यक - स्वापतेयमनायं चेत्सव्ययं व्येति भूर्यपि। सर्वदा भुज्यमानो हि पर्वतोऽपि परिक्षयी ।।५।। जिसप्रकार हमेशा भोगा जानेवाला पर्वत भी नष्ट हो जाता है; उसीप्रकार जिसमें आमदनी बिलकुल नहीं है, किन्तु खर्चही खर्च है; वह धन बहुत होने पर भी नष्ट हो जाता है। ५८. दरिद्रता का दुःख - दारिद्र्यादपरं नास्ति जन्तूनामप्यरुन्तुदम् । अत्यक्तं मरणं प्राणैः प्राणिनां हि दरिद्रता ।।६।। मनुष्य को दरिद्रता से बढ़कर अन्य कोई बड़ा दुःख नहीं है; क्योंकि दरिद्रता मनुष्य को प्राणों के निकले बिना ही जीवित मरण है। ५९. निर्धन के गुण और विद्या की स्थिति - रिक्तस्य हिन जागर्ति कीर्तनीयोऽखिलो गुणः। हन्त किं तेन विद्यापि विद्यमाना न शोभते ।।७।। निर्धन व्यक्ति के जगत्प्रशंसनीय गुण भी प्रकाशित/प्रसिद्ध नहीं होते। इतना ही नहीं, खेद की बात तो यह है कि उसकी विद्यमान, स्पष्ट और प्रगट विद्याएँ भी शोभायमान नहीं होती। ६०. दरिद्री की दयनीय दशा - स्यादकिञ्चित्करः सोऽयमाकिञ्चन्येन वञ्चितः। अलमन्यैः स साकूतं धन्यवक्त्रं च पश्यति ।।८।। निर्धनता द्वारा ठगाया गया मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। अन्य बातों की तो क्या चर्चा करें ? वह निर्धन मनुष्य कुछ मिलेगा - इस आशा से धनवान मनुष्यों का मुँह ताकने लगता है। ६१. धन की सार्थकता - सम्पल्लाभफलं पुंसां सजनानां हि पोषणम् । काकार्थफलनिम्बोऽपि श्लाघ्यतेन हिचूतवत् ।।९।। जिसप्रकार कौए के लिए हितकारी होने पर भी अन्य प्राणियों के काम कान होने से नीम का वृक्ष आम के समान प्रशंसनीय नहीं होता; उसीप्रकार दुर्जनों को धनादिक देना उनके लिए तो हितकर है, किन्तु वह सज्जनों को धन देने के समान प्रशंसनीय नहीं है। ६२. धन की निरर्थकता - लोकद्वयहितं चापि सुकरं वस्तु नासताम् । लवणाब्धिगतं हि स्यान्नादेयं विफलं जलम् ।।१०।। जिसप्रकार नदियों का मीठा जल भी समुद्र में जाकर खारा हो जाता है, पीने योग्य नहीं रहता; उसीप्रकार इहलोक और परलोक में हितकारी वस्तु दुर्जन के पास जाकर बेकार हो जाती है। ६३. अज्ञानी भावी विपत्ति से दुःखी - भाविन्या विपदो यूयं विपन्ना:किंबुधाः शुचा। सर्पशङ्काविभीताः किं सर्पास्ये करदायिनः ।।१६।। जिसप्रकार सर्प से डरनेवाले लोग कभी भी सर्प के मुँह में हाथ नहीं डालते,
SR No.008381
Book TitleSuktisangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages37
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size197 KB
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