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सूक्तिसंग्रह
सज्जन मनुष्य दूसरे मनुष्य को तत्काल सज्जन नहीं बना पाता; क्योंकि पदार्थों
के विनाश के समान उनका उत्पन्न करना सरल नहीं है।
४८. सज्जनों का समागम तथा सम्मान करना उचित -
सज्जनास्तु सतां पूर्व समावर्ज्या: प्रयत्नतः । किं लोके लोष्टवत्प्राप्यं श्लाघ्यं रत्नमयत्नतः ॥ ५०॥
जिसप्रकार मिट्टी, कंकड़ आदि बिना प्रयास के सरलता से मिल जाते हैं, किन्तु मूल्यवान रत्न नहीं मिलते; उसीप्रकार सज्जन पुरुषों का समागम बड़ी दुर्लभ से होता है, अतः सज्जनों को प्रयत्नपूर्वक सज्जनों का सम्मान, आदर-सत्कार करना चाहिए।
४९. सज्जनों के वचन अमृत से भी श्रेष्ठ -
जाग्रत्वं सौमनस्यं च कुर्यात्सद्वागलं परैः । अजलाशयसम्भूतममृतं हि सतां वचः ॥५१॥
सज्जन पुरुषों के वचन सावधान करनेवाले, मन को पवित्र करनेवाले एवं अमृत के समान हैं । अमृत तो समुद्र से उत्पन्न माना गया है; किन्तु सज्जन पुरुषों के वचन उनके पवित्र हृदय से उत्पन्न होते हैं।
५०. अविकारी रहना ही योग्य है -
यौवनं सत्त्वमैश्वर्यमेकैकं च विकारकृत् । समवायो न किं कुर्यादविकारोऽस्तु तैरपि ।। ५२ ।।
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यौवन, सत्ता, अधिकार, धन-वैभव इनमें से एक भी हो तो वह अज्ञानी मनुष्य को विकारी बना देता है, फिर इन सबका समूह मनुष्य को विकारी क्यों नहीं बनाएगा ? अवश्य बनाएगा, किन्तु ऐसे निमित्त मिलने पर भी अविकारी रहना ही सज्जनों के लिए योग्य है। ५१. सज्जन पुरुष सदा अविकारी -
न हि विक्रियते चेतः सतां तद्धेतुसन्निधौ । किं गोष्पदजलक्षोभी क्षोभयेज्जलधेर्जलम् ||५३||
लम्ब २
५३.
जैसे गाय के खुरप्रमाण जल को तरंगित एवं मैला करनेवाला छोटा-सा मेंढक समुद्र के जल को तरंगित एवं मैला नहीं कर सकता; वैसे ही विकार के निमित्त उपस्थित होने पर भी वे निमित्त सज्जन / सम्यग्दृष्टि के चित्त को क्षोभित करने /विकारी बनाने में समर्थ नहीं हैं।
५२. अस्थिर बुद्धि ही जीवन में बाधक -
देशकालखलाः किं तैश्चला धीरेव बाधिका । अवहितोऽत्र धर्मे स्यादवधानं हि मुक्तये ।।५४।।
प्रतिकूल देश, प्रतिकूल काल और दुर्जन मनुष्यों से कुछ भी हानि नहीं
होती; अपितु अपनी चंचल बुद्धि ही हानिकारक होती है। इसीलिए आत्मस्वभाव में सावधान रहो ; क्योंकि आत्मलीनता ही मुक्ति का कारण है। ५३. आत्मा ही आत्मा का सच्चा गुरु -
शिक्षावचः सहस्रैर्वा क्षीणपुण्ये न धर्मधीः । पात्रे तु स्फायते तस्मादात्मैव गुरुरात्मानः ।। ५५ ।। पुण्यहीन मनुष्यों को हजारों हितकारी उपदेशों से भी धर्मबुद्धि उत्पन्न नहीं होती; किन्तु पात्र मनुष्यों में उपदेश के बिना भी धर्मबुद्धि बढ़ती है। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा ही आत्मा का सच्चा गुरु है।
५४. धन से उन्मत्त जीवों का स्वरूप -
शृण्वन्ति न बुध्यन्ति न प्रयान्ति च सत्पथम् । प्रयान्तोऽपि न कार्यान्तं धनान्धा इति चिन्त्यताम् ॥ ५६ ॥
धन से अन्धे हुए व्यक्ति कल्याणकारी धर्म के मार्ग को न तो सुनते हैं, न समझते हैं और न ही उस पर चलते ही हैं। यदि कदाचित् सन्मार्ग पर चलें तो भी बीच में ही रुक जाते हैं, पूर्णता तक नहीं पहुँच पाते।
५५. धन का स्वरूप -
धनार्जनादपि क्षेमे क्षेमादपि च तत्क्षये । उत्तरोत्तरवृद्धाः हि पीडा नृणामनन्तश: ।। ६७ ।।