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________________ लम्ब६ सूक्तिसंग्रह ७२. सज्जनता का लक्षण - हेत्वन्तरकृतोपेक्षे गुणदोषप्रवर्तिते। स्यातामादानहाने चेत्तद्धि सौजन्यलक्षणम् ।।१९।। अन्य कारणों की अपेक्षा बिना मात्र लाभ और हानि का विचार करके किसी भी वस्तु को ग्रहण करना या छोड़ना सज्जनता का लक्षण है। ७३. ज्ञानपूर्वक आचरण ही श्रेष्ठ - युक्तायुक्तवितर्केऽपि तर्करूढविधावति । पराङ्मुखात्फलं किम्वा वैदुष्याद्वैभवादपि ।।२०।। उचित और अनुचित के विचार के पश्चात् उचित सिद्ध हुए कार्य के विपरीत अनुचित कार्य में प्रवृत्ति करनेवालों की विद्वत्ता और ऐश्वर्य व्यर्थ ही ७४. विपत्ति भी सम्पत्ति बन जाती है - विपच्च सम्पदे पुण्यात्किमन्यत्तत्र गण्यते। भानुलॊकं तपन्कुर्याद्विकासश्रियमम्बुजे ।।२५।। जैसे जोसूर्य समस्त संसार को सन्तप्त करता है, वही सूर्य कमल को विकसित करता है; वैसे ही पुण्यकर्म का उदय हो तो विपत्ति भी सम्पत्ति बन जाती है, फिर अन्य अनुकूलता का तो कहना ही क्या ? ७५. धर्मात्मा का स्वभाव - धर्मो नाम कृपामूलः सा त जीवानकम्पनम् । अशरण्यशरण्यत्वमतो धार्मिकलक्षणम् ।।३५।। दया ही धर्म का मूल है और वह दया जीवों की रक्षा करनेरूप है; इसलिए अरक्षित जीवों की दया करना धर्मात्मा का लक्षण है। ७६. सज्जनों का सहज स्वभाव - सम्पदापवये स्वेषां समभावा हि सज्जनाः। परेषां तु प्रसन्नाश्च विपन्नाश्च निसर्गतः ।।३८॥ सज्जन पुरुष अपने सुख-दुःख में हर्ष-विषाद नहीं करते; अपितु समताभाव धारण करते हैं और दूसरों के सुख-दु:ख में स्वाभाविकरूप से सुखी-दुःखी होते हैं। ७७. धर्मात्मा पुरुषों की पूजा - दैवतेनापि पूज्यन्ते धार्मिकाः किं पुन: परैः । अतो धर्मरतः सन्तु शर्मणे स्पृहयालवः ।।४१।। देवगति के देव भी धर्मात्मा पुरुषों की पूजा करते हैं, तो अन्य सामान्य लोगों की तो बात ही क्या ? इसलिए सुख की कामना करनेवाले व्यक्तियों को धर्म में लग जाना चाहिए। ७८. पूज्य-पूजक का सहज सुमेल - पूज्या अपिस्वयंसन्तः सज्जनानां हि पूजकाः। पूज्यत्वं नाम किं नुस्यात्पूज्यपूजाव्यतिक्रमे ।।४५।। स्वयं दूसरों द्वारा पूजनीय होने पर भी सज्जन पुरुष अन्य सज्जन पुरुषों के पूजक होते हैं; क्योंकि पूज्य पुरुषों की पूजा का उल्लंघन करने पर पूज्यपना भी कायम नहीं रह सकता। ७९. बुद्धिमानों की नम्रता फलदायक - प्राज्ञेषु प्रह्वतावश्यमात्मवश्योचिता मता। प्रहताऽपि धनुष्काणां कार्मुकस्यैव कामदा।।४६।। जैसे धनुष्य की नम्रता धनुर्धारियों के मनोरथ को सिद्ध करनेवाली होती है, वैसे ही बुद्धिमानों की नम्रता से उनके मनोरथों की सिद्धि सहज ही होती है; अत: बुद्धिमानों में नम्रता होना आवश्यक है। लम्ब-६ ८०. महापुरुषों के संसर्ग से भूमि का तीर्थक्षेत्र बन जाना - सद्भिरध्युषिता धात्री सम्पूज्येति किमद्भुतम् ।
SR No.008381
Book TitleSuktisangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages37
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size197 KB
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