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________________ सूक्तिसंग्रह विपदाओं को दूर करने के लिए क्या मनुष्य का शोक समर्थ है ? बिलकुल नहीं है। जैस गर्मी से होनेवाले दु:ख को दूर करने के लिए अग्नि में कूदना / प्रवेश करना उचित उपाय नहीं है; वैसे ही शोक करना संकट के परिहार का उपाय नहीं है। ९. संकट परिहार का सही उपाय - ततो व्यात्प्रतीकारं धर्ममेव विनिश्चिन। प्रदीपैर्दीपिते देशे न हास्ति तमसो गतिः ।।३१॥ जिसप्रकार दीपकों से प्रकाशित स्थान पर अन्धकार नहीं ठहर सकता; उसीप्रकार जहाँ धर्म है, वहाँ विपत्तियाँ भी नहीं ठहर सकतीं। अत: यह दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि विपत्तियों का परिहार धर्म से ही होता है। १०. पश्चात्ताप की निरर्थकता - न हाकालकृता वाञ्छा सम्पुष्णाति समीहितम्। किं पुष्पावचय: शक्यः फलकाले समागते ।।३६।। जिसप्रकार फलोत्पत्ति का काल आने पर उससमय फूलों की प्राप्ति सम्भव नहीं है अर्थात् जिससमय वृक्ष में फल लगनेवाले होते हैं, उससमय वृक्ष से फूलों की प्राप्ति सम्भव नहीं होती; उसीप्रकार असमय में की गई इच्छा भी इच्छित कार्य को पूरा नहीं करती है। तात्पर्य यह है कि यदि गलत समय में सही कार्य भी किया जाता है तो उसमें सफलता नहीं मिलती। ११. पराधीन जीवन से मरण श्रेष्ठ - जीवितात्तु पराधीनाज्जीवानां मरणं वरम्। मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्ण केन कानने।।४०।। पराधीन रहकर जीवन जीने की अपेक्षा जीवों को मरण ही श्रेष्ठ है; वन में सिंह को वनचरों का स्वामी किसने बनाया ? किसी ने नहीं। सिंह तो स्वयमेव अपने पुरुषार्थ से ही स्वामी बन गया है। लम्ब१ १२. राजा, प्रजा का प्राण होता है - राजानः प्राणिनां प्राणास्तेषु सत्स्वेव जीवनात् । तत्तत्र सदसत्कृत्यं लोक एव कृतं भवेत् ।।४६।। राजा लोग ही प्रजा के प्राण होते हैं, क्योंकि उनके कारण ही प्रजा का जीवन सुरक्षित रहता है, इसलिए राजाओं के प्रति किया गया अच्छा-बुरा कार्य प्रजा के प्रति ही होता है। अतः हमें कभी भी राजा का बुरा नहीं सोचना चाहिए। १३. राजद्रोह में पाँचों पाप समाहित - एवं राजद्रुहां हन्त सर्वद्रोहित्व-सम्भवे । राजधुगेव किं न स्यात् पञ्चपातकभाजनम् ।।४७।। चूँकि राजा के प्रति किया गया कार्य प्रजा के प्रति ही होता है, अत: राजद्रोह में पूरी प्रजा के प्रति द्रोह समाहित होने से राजा के साथ द्रोह/धोखा करनेवाला व्यक्ति पाँचों ही पापों को करनेवाला होता है। १४. पुण्य समाप्त होने पर पाप का उदय - शोकेनालमपुण्यानां पापं किं न फलप्रदम् । दीपनाशे तमोराशिः किमाह्वानमपेक्षते ।।५८।। पुण्यरहित जीवों के लिए क्या पाप फल नहीं देता? देता ही है। जिसप्रकार दीपक के बुझ जाने पर अन्धकार का समूह आमन्त्रण की अपेक्षा नहीं रखता; उसीप्रकार पुण्य क्षीण हो जाने पर पाप भी आमन्त्रण की अपेक्षा नहीं रखता, अपितु वह फल देने के लिए स्वयमेव उपस्थित हो जाता है अर्थात् पाप का उदय होता है। १५. धनादि भोग्य वस्तुओं की स्वाभाविक क्षणभंगुरता - यौवनं च शरीरं च सम्पच्च व्येति नामृतम्। जलबुदबुनित्यत्वे चित्रीया न हि तत्क्षये ।।५९।। जवानी, शरीर और सम्पत्ति के नष्ट हो जाने में क्या आश्चर्य है; क्योंकि इनका तो स्वभाव ही नष्ट होने का है, ठीक उसीप्रकार जैसे बुलबुले के देर तक
SR No.008381
Book TitleSuktisangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages37
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size197 KB
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