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लम्ब१
सूक्तिसंग्रह ठहरने में आश्चर्य होता है, न कि उसके तत्क्षण नष्ट हो जाने में। १६. संयोग का वियोग सुनिश्चित -
संयुक्तानां वियोगश्च भविता हि नियोगतः। किमन्यैरङ्गतोऽप्यङ्गी निःसङ्गो हि निवर्तते।।६०।। जिन पदार्थों का संयोग हुआ है, उनका वियोग होना निश्चित है, क्योंकि संयोग कहते ही उसे, जिसका नियम से वियोग हो । दूसरों की तो बात ही क्या करें, यहाँ तो जन्म से ही आत्मा के साथ रहनेवाले शरीर का भी वियोग हो ही जाता है। १७. शत्रु-मित्रता केवल कल्पना -
अनादौ सति संसारे केन कस्य न बन्धुता। सर्वथा शत्रुभावश्च सर्वमेतद्धि कल्पना।।६१।। १. यह संसार अनादिकालीन है, अत: यहाँ पर किसी की भी किसी के साथ सर्वथा अनादिकालीन मित्रता या शत्रुता नहीं हो सकती। किसी के साथ मित्रता या शत्रुता मानना कल्पना मात्र है। अत: हमें परस्पर मित्रता या शत्रुता का भाव करके व्यर्थ के राग-द्वेष नहीं करना चाहिए।
२. संसार अनादि काल का होने से किसका किसके साथ भ्रातृत्व नहीं हुआ अर्थात् किसी न किसी भव में सभी जीव परस्पर एक-दूसरे के भाई-बहन आदि बने हैं। अत: किसी के साथ सर्वथा शत्रता का भाव रखना कल्पना ही है। १८. राज्यादि समस्त भोग्य वस्तु उच्छिष्ट -
भुक्तपूर्वमिदं सर्वं त्वयात्मन्भुज्यते ततः।
उच्छिष्टं त्यज्यतां राज्यमनन्ता हासुभृद्भवाः ।।६७।। हे आत्मन् ! चूँकि जीव की पर्यायें अनन्त होती हैं। इसलिए इस संसार की समस्त वस्तुएँ तुम्हारे द्वारा पहले ही भोगी हुई हैं और तुम अब पुन: उन्हीं वस्तुओं का भोग कर रहे हो; किन्तु जिस वस्तु का एक बार भोग कर लिया जाता है, वह जूठी हो जाती है। इसलिए तुम जूठन के समान इन राज्यादिक को छोड़ो।
१९. भोग से संसार और त्याग से मोक्ष -
अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विषयाश्चिरम्। स्वयंत्याज्यस्तथा हि स्यान्मुक्ति: संसृतिरन्यथा॥६८॥ यदि पाँचो इन्द्रियों के विषय बहुत काल तक स्थिर रहने के बाद भी नष्ट हो जाते हैं तो हमें उनके नष्ट होने के पहले ही उनका त्याग कर देना चाहिए; क्योंकि यदि उनके नाश होने के पहले ही हम उनका त्याग कर देते हैं तो मुक्ति होती है। यदि हम त्याग नहीं करते तो कर्मों का बन्धन होगा ही, जिससे संसार ही बढ़ेगा। २०. त्याग की महिमा -
त्यज्यते रज्यमाने राज्येनान्येन वा जनः ।
भज्यते त्यज्यमानेन तत्त्यागोऽस्तु विवेकिनाम्।।६९।। राज्य, वैभव, स्त्री-पुत्रादि इष्ट पदार्थ मनुष्य को चाहने मात्र से प्राप्त नहीं होते । जो इन पदार्थों का त्याग करे, उनके प्रति रागभाव छोड़े तो वे ही अपेक्षित वस्तुएँ उस त्याग करनेवाले को सहज प्राप्त होती हैं। अत: भेदविज्ञानियों को त्यागभाव स्वीकार करना चाहिए। २१. नारी सम्बन्धी राग की क्रूरता -
अधिस्त्रि राग: क्रूरोऽयं राज्यं प्राज्यमसूनपि। तद्वञ्चिता हि मुञ्चन्ति किं न मुञ्चन्ति रागिनः।।७२।। स्त्रियों के प्रति होनेवाला राग अत्यन्त भयंकर होता है; क्योंकि स्त्री से राग करनेवाला व्यक्ति जब राज्य और प्राणों को भी छोड़ देता है अर्थात् इनकी परवाह नहीं करता तो इनसे बढ़कर इस संसार में उसके लिए क्या है, जिनकी वह परवाह करेगा? २२. स्त्री के भोग में आसक्त मनुष्य सूकर के समान -
नारीजघनरन्ध्रस्थ - विण्मूत्रमयचर्मणा। वराह इव विभक्षी हन्त मूढः सुखायते।।७३।।