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________________ लम्ब-१ १. विषयासक्ति सद्गुणों की नाशक - विषयासक्तचित्तानां गुण: को वा न नश्यति । न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्यं नसत्यवाक् ।।१०।। पंचेन्द्रियों के विषय में आसक्त मनुष्यों के कौन-से सद्गुण नष्ट नहीं होते हैं? अरे ! उनके तो सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि विषयों की आसक्ति और सद्गुणों में परस्पर सदा से ही वैर है। अत: विषयासक्त मनुष्यों में विद्वत्ता, मानवता, कुलीनता, सत्यनिष्ठा, विवेक आदि कोई भी गुण नहीं रहता। २. कामासक्त मनुष्य की अदूरदृष्टि - पराराधनजाद् दैन्यात्पैशून्यात्परिवादतः । पराभवात्किमन्येभ्यो न विभेति हि कामुकः।।११।। जब कामासक्त लोग दूसरों की सेवा करने से उत्पन्न दीनता, चुगली, निन्दा और तिरस्कार से भी नहीं डरते; तो फिर अन्य सामान्य दुःखद स्थितियों से वे कैसे डरेंगे? ३. कामासक्त पुरुष मृत्यु से भी नहीं डरते - पाकं त्यागं विवेकं च वैभवं मानितामपि । कामार्ताः खलु मन्तिकिमन्यैः स्वशु जीवितम।।१२।। जब विषय-भोगों की इच्छा से पीड़ित लोग भोजन, त्याग (व्रत-नियम), मान-सम्मान, वैभव और विवेक को भी छोड़ देते हैं, तब अन्य विषयों की तो बात ही क्या? अरे, काम-वासना की पूर्ति के लिए तो वे अपना अमूल्य जीवन भी नष्ट कर देते हैं। ४. राजनीति का स्वरूप - हृदयं च न विश्वास्यं राजभिः किं परो नरः । किन्तु विश्वस्तवदृश्यो नटायन्ते हि भूभुजः।।१५।। मन्त्री राजा को परामर्श दे रहे हैं - राजा को तो अपने हृदय पर भी विश्वास लम्ब१ नहीं करना चाहिए, फिर औरों की तो बात ही क्या ? फिर भी उसे ऐसा प्रदर्शन करना चाहिए कि वह सब पर विश्वास करता है। राजा लोग तो नट के समान आचरण करते हैं। ५. त्रिवर्ग साधन की सार्थकता - परस्पराविरोधेन त्रिवर्गो यदि सेव्यते। अनर्गलमत: सौख्यं अपवर्गोऽप्यनुक्रमात् ।।१६।। यदि एक-दूसरे के साथ अविरोधपूर्वक धर्म, अर्थ और काम - इन तीनों पुरुषार्थों का सेवन किया जाए तो इहलोक में तो सांसारिक सुख की प्राप्ति होती ही है; परम्परा से मोक्ष भी प्राप्त होता है। ६. कार्यारम्भ के पूर्व अति आवश्यक विचार - नाशिनं भाविनं प्राप्यं प्राप्ते च फलसन्ततिम् । विचाय्यॆव विधातव्यमनुतापोऽन्यथा भवेत् ।।१८।। जिस पदार्थ के लिए हम पुरुषार्थ कर रहे हैं, वह विनाशी है या अविनाशी ? वह हमें भविष्य में प्राप्त हो सकता है या नहीं ? प्राप्त होने पर वह फल देगा, उससे लाभ होगा या नहीं ? - इत्यादि बातों का विचार करके ही पुरुषार्थ करना चाहिए; अन्यथा पश्चात्ताप ही होगा। ७. अज्ञानी को अनिष्ट की आकुलता निरन्तर - पुत्रमित्रकलत्रादौ सत्यामपि च सम्पदि। आत्मीयापायशङ्का हि शङ्क प्राणभृतां हृदि ।।२४।। पुत्र, मित्र, पत्नी आदि साथ में होने पर भी मनुष्य को स्वयं के विनाश की शंका हृदय में कील के समान चुभती रहती है अर्थात् कितने ही इष्ट संयोग मिल जाएँ तो भी मनुष्य को अपने मरण की चिन्ता काँटे के समान सालती रहती है। ८. संकट परिहार के लिए शोक असमर्थ - विपदः परिहाराय शोकः किं कल्पते नृणाम् । पावकेन हि पात: स्यादातपक्लेशशान्तये ।।३०।।
SR No.008381
Book TitleSuktisangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages37
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size197 KB
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