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'ह-त्र-ज्ञ' ३६१. स्वयं वृण्वन्ति हि स्त्रियः ।।१/११०।।
स्त्रियाँ अच्छे वर को स्वयं वर लेती हैं। ३६२. स्ववधाय हि मूढात्मा कृत्योत्थापनमिच्छति ।।१०/३२ ।।
मूर्ख व्यक्ति स्वयं अपने नाश के लिए बेताल को जगाने की इच्छा करता है। ३६३. स्वास्थ्ये हादृष्टपूर्वाश्च कल्पयन्त्येव बन्धुताम् ।।४/३५।।
पहले न देखे हुए मनुष्य सुख के समय भ्रातृत्व जताने लगते हैं।
३६४. हन्त कापटिका लोके बुधायन्ते हि मायया ।।१०/२१ ।।
खेद है कि कपटी मनुष्य छल-कपट से विद्वानों के समान व्यवहार करते
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सूक्तिसंग्रह बुद्धिमान पुरुष उचित स्थान में/समयपर ही बोलते हैं। ३५०. स्थाने हि बीजवद्दत्तमेकं चापि सहस्रधा ।।७/६।।
अच्छे स्थान में बोया गया एक ही बीज सहस्रगुना फल देता है। ३५१. स्नेहपाशो हि जीवानामासंसारं न मुञ्चति ।।८/२२।।
जबतक संसार है, तबतक प्राणियों का स्नेहरूपी बन्धन नहीं छूटता। ३५२. स्वदेशे हि शशप्रायो बलिष्ठः कुञ्जरादपि ।।२/६४।।
अपने स्थान पर खरगोश जैसा तुच्छ पशु भी हाथी से भी बलवान होता है। ३५३. स्वकार्येषु हि तात्पर्य स्वभावादेव देहिनाम् ।।९/२५ ।।
मनुष्यों को अपने कार्यों में तत्परता स्वभाव से ही हुआ करती है। ३५४. स्वभावो न हि वार्यते ।।१०/५१।।
स्वभाव कभी भी बदला नहीं जा सकता। ३५५. स्वमनीषितनिष्पत्तौ किंन तुष्यन्ति जन्तवः ।।६/३८।।
चिर प्रतीक्षित कार्य की सफलता पर क्या प्राणी आनन्दित नहीं होते ? ३५६. स्वामीच्छाप्रतिकूलत्वं कुलजानां कुतो भवेत् ।।१०/२।।
कुलीन स्त्रियाँ अपने पति की इच्छा के विरुद्ध प्रवृत्ति नहीं करती। ३५७. स्वयं देया सती विद्या प्रार्थनायां तु किं पुनः ।।७/७५ ।।
निर्दोष विद्या बिना माँगे ही दूसरों को देना चाहिए; फिर याचना करने पर तो
देना ही चाहिए। ३५८. स्वयं नाशी हि नाशकः ।।१०/५०॥
दूसरे का नाश करनेवाला अपना ही नाश करता है। ३५९. स्वयं परिणतो दन्ती प्रेरितोऽन्येन किं पुनः ।।१०/९।।
हाथी स्वभावत: वृक्ष आदि उखाड़ने में तत्पर रहता है, फिर यदि कोई उसे
उत्तेजित करे तो फिर उसका कहना ही क्या? ३६०. स्वस्यैव सफलो यत्नः प्रीतये हि विशेषतः ।।४/४३।।
स्वयं का सफल प्रयत्न विशेषरूप से आनन्दकारी होता है।
३६५. हन्त क्रूरतमो विधिः ।।१/६३ ।।
खेद है कि भाग्य बहुत कठोर होता है। ३६६. हस्तस्थेप्यमृते को वा तिक्तसेवापरायणः ।।११/८२ ।।
हाथ में अमृत आ जाने पर कड़वी वस्तु केसेवन की चाह कौन करता है? ३६७. हन्तात्मानमपिघ्नन्तः क्रुद्धाः किं किं न कुर्वते ।।२/३८।।
अपने आप को भी नष्ट कर देनेवाले क्रोधी जन क्या-क्या नहीं कर डालते? ३६८. हितकृत्त्वं हि मित्रता ।।५/३१ ।।
मित्र के प्रति हितबुद्धि ही मित्रता है। ३६९. हेतुच्छलोपलम्भेन जृम्भते हि दुराग्रहः ।।९/९।।
कोई बहाना/निमित्त मिल जाने से मनुष्य का दुराग्रह बढ़ ही जाता है।
३७०. त्रिकालज्ञा हि निर्जराः ।।५/३०।।
देवगति केदेव भूत-भविष्य सम्बन्धी घटनाओं को अवधिज्ञान द्वारा जानते हैं। ३७१. त्रिलोकीमूल्यरत्नेन दुर्लभ: किंतुषोत्करः ।।२/३२ ।।
जो रत्न तीन लोक की सम्पदा खरीदने में समर्थ है, उस रत्न से क्या भूसे का ढेर नहीं खरीदा जा सकता?