SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुद्धात्मशतक शुद्धात्मशतक (४२) एवं सम्मद्दिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं । उदयं कम्मविवागं च मुयदि तच्चं वियाणंतो ।। ज्ञायकस्वाभावी आतमा इसतरह ज्ञानी जानते । निजतत्त्व को पहिचान कर कर्मोदयों को छोड़ते ।। इसप्रकार सम्यग्दृष्टी जीव अपने आत्मा को ज्ञायकस्वभावी जानता है और तत्त्व को जानता हुआ कर्म के विपाकरूप उदय को छोड़ता है। (३९) अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूपी । ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्त पि ।। मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं। ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ।। मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ एवं सदा ही ज्ञानदर्शनमय अरूपीतत्त्व हूँ। मुझसे भिन्न अन्य समस्त द्रव्य परमाणु मात्र भी मेरे नहीं है। तात्पर्य यह है कि मैं समस्त परद्रव्यों से भिन्न ज्ञानदर्शनस्वरूपी, अरूपी, एक परमशुद्ध तत्त्व हूँ; अन्य परद्रव्यों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। (४०) णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।। मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है मोह-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ।। 'मोह मेरा कोई (सम्बन्धी) नहीं है, मैं तो एक उपयोग ही हूँ' - ऐसा जाननेवाले को एवं उनके इसप्रकार के जानने को सिद्धान्त के जानकार मोह से निर्ममत्व जानते हैं, कहते हैं। (४१) णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्य वियाणाया बेंति ।। धर्मादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है धर्म-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ।। 'ये धर्म आदि द्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं, मैं तो एक उपयोग ही हूँ' - ऐसा जानने वाले को एवं उनके इसप्रकार के जानने को सिद्धान्त के जानकर धर्मादि द्रव्यों के प्रति निर्ममत्व जानते हैं, कहते हैं। ३९. समयसार गाथा ३८ ४०. समयसार गाथा ३६ ४१. समयसार गाथा ३७ (४३) सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरिसी य । सो जिणवरेहिं भणिओ जाण तुमं केवलं णाणं ।। सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी आतमा सिध शुद्ध है। यह कहा जिनवर देव ने तुम स्वयं केवलज्ञानमय ।। यह भगवान आत्मा सिद्ध है, शुद्ध है, सर्वज्ञ सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। अतः हे आत्मा तू स्वयं को केवल ज्ञानस्वरूप ही जान। सत्थं णाणं ण हवदि जम्हा सत्थं ण याणदे किंचि । तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणा बेंति ।। शास्त्र ज्ञान नहीं है क्योंकि शास्त्र कुछ जाने नहीं। बस इसलिए ही शास्त्र अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ।। शास्त्र ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्र कुछ जानते नहीं हैं; इसलिए शास्त्र अन्य हैं और ज्ञान अन्य हैं; ऐसा जिनदेव कहते हैं। ४३. समयसार गाथा ३५ ४२. समयसार गाथा २०० ४४. समयसार गाथा ३९०
SR No.008380
Book TitleShuddhatma shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size66 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy