SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० शुद्धात्मशतक (६९) जीवे कम्मं बद्धं पुट्ठ चेदि ववहारणयभणिदं । सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुट्ठे हवदि कम्मं ।। कर्म से आबद्ध जिय यह कथन है व्यवहार का । पर कर्म से ना बद्ध जिय यह कथन है परमार्थ का ।। कर्म जीव से जीव कर्मों से बंधा हुआ है, स्पर्शित है; - यह व्यवहारनय का कथन है और कर्म जीव से या जीव कर्मों से जीव अबद्ध है, अस्पर्शित है; यह शुद्धनय का कथन है। ( ७० ) कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं । पक्खादिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ।। अबद्ध है या बद्ध है जिय यह सभी नयपक्ष हैं। नयपक्ष से अतिक्रान्त जो वह ही समय का सार है ।। जीव कर्मों से बद्ध है या अबद्ध है - यह तो नयपक्ष है; किन्तु जो नयपक्ष से अतिक्रान्त है, वह समयसार है। (७१) कह सो धिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा | जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो ।। जिस भाँति प्रज्ञा छैनि से पर से विभक्त किया इसे । उस भाँति प्रज्ञा छैनि से ही अरे ग्रहण करो इसे ।। प्रश्न- भगवान आत्मा को किसप्रकार ग्रहण किया जा? उत्तर – भगवान आत्मा का ग्रहण बुद्धिरूपी छैनी से किया जाना चाहिए। जिसप्रकार बुद्धिरूपी छैनी से भगवान आत्मा को पर पदार्थों से भिन्न किया है उसीप्रकार बुद्धिरूपी छैनी से ही भगवान आत्मा को ग्रहण करना चाहिए । ६९. समयसार गाथा १४१ ७१. समयसार गाथा २९६ ७०. समयसार गाथा १४२ 13 शुद्धात्मशतक (७२) पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्तिणायव्वा ।। इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो चेतना । अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।। प्रज्ञा (बुद्धि) से इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि निश्चय से मैं चेतनास्वरूप हूँ चेतनेवाला हूँ। शेष जो भाव हैं, वे मुझसे भिन्न हैं, पर हैं; - ऐसा जानना चाहिए। ३१ (७३) पण्णाए घित्तव्वो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा ।। इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो देखता । अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।। प्रज्ञा से इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि निश्चय से मैं देखनेवाला हूँ, दृष्ट । शेष जो भाव हैं, वे मुझ से भिन्न हैं, पर हैं; ऐसा जानना चाहिए। - (७४) पण्णाए धित्व्यो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो । अवसेसा से भावा ते मज्झ परेत्ति णादव्वा । इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो जानता । अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ।। प्रज्ञा से इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि निश्चय से मैं जाननेवाला हूँ, ज्ञाता हूँ। शेष जो भाव हैं, वे मुझसे भिन्न हैं, ऐसा जानना चाहिए । ७२. समयसार गाथा २९७ ७४. समयसार गाथा २९९ ७३. समयसार गाथा २१८
SR No.008380
Book TitleShuddhatma shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size66 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy