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________________ सामान्य षटकारक - आत्मावलोकन पृष्ठ - षट्कारक अनुशीलन इस जीव को जो अज्ञान भाव से मिथ्यात्वादि भाव रूप परिणाम हैं, वे भी चेतन हैं, जड़ नहीं। अशुद्ध निश्चयनय से उन्हें चिदाभास भी कहा जाता है। इस प्रकार वे परिणाम चेतन होने से उनका कर्ता भी चेतन ही हैक्योंकि चेतन कर्म का कर्त्ता चेतन ही होता है - यह परमार्थ है। इतना विशेष है कि सभी कार्य निमित्त सापेक्ष होने मात्र से उन्हें व्यवहार से सहेतुक कहा जाता है। गुरुदेव ! 'जीव स्वतंत्ररूप से विकार करता है, अत: वह अहेतुक है' यह बात तो बिल्कुल सही है, परन्तु क्या यह कथन आगम में और भी कहीं आया है? हाँ, हाँ, पंचास्तिकाय गाथा ६६ की टीका में भी आया है जिसका अभिप्राय इसप्रकार है "जिस प्रकार अपने योग्य (कार्य के अनुकूल) निमित्तरूप में चन्द्र-सूर्य के प्रकाश की निमित्तरूप में उपलब्धि होने पर संध्या की लाली, बादलों के विभिन्न रंग तथा इन्द्र धनुष-प्रभामंडल आदि अनेक प्रकार के पुद्गल स्कंध भेद अन्य कर्ता की अपेक्षा बिना ही उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार निमित्तरूप में अपने योग्य(कर्मबंध के योग्य) जीव परिणाम की निमित्तरूप उपलब्धि होने पर ज्ञानावरणादि अनेक प्रकार के कर्म भी अन्य कर्त्ता की अपेक्षा बिना ही उत्पन्न होते हैं।” तात्पर्य यह है कि - कर्मों की विविध प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभाग रूप विचित्रता भी जीवकृत नहीं है, पुद्गल कृत ही है। जीव के परिणाम तो निमित्तरूप में मात्र उपस्थित होते हैं, वे कर्मों के कर्ता नहीं। गुरुदेव! क्या जीव कर्म के उदय के अनुसार विकारी नहीं होता? “नहीं, कभी नहीं; क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर तो सर्वदा विकार होता ही रहेगा; क्योंकि संसारी जीव के कर्मोदय तो सदा विद्यमान रहता ही है।" तो क्या पुद्गल कर्म भी जीव को विकारी नहीं करता? “नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की परिणति का कर्त्ता नहीं गुरुदेव ! अध्यात्म में सम्बन्ध एवं संबोधन कारक क्यों नहीं होते ? अरे भाई ! वे क्रिया के प्रति प्रयोजक नहीं होते। जैसे - "देवदत्त जिनदत्त के मकान को देखता है" इस उदाहरण में देखने रूप क्रिया का प्रयोजक मात्र मकान है न कि जिनदत्त का । वह मकान किसी का भी हो, इससे देखने रूप क्रिया के प्रयोजन पर क्या फर्क पड़ता है। इसलिए कारक छह ही हैं 'सम्बन्ध कारक' परमार्थ से कारक ही नहीं है। संबोधन भी दूसरों का ही किया जाता है। सम्बन्ध एवं संबोधन पर से जोडते हैं और अध्यात्म में पर से कुछ भी संबंध नहीं होता। इस कारण अध्यात्म में सम्बन्ध एवं संबोधन कारक नहीं होते। अध्यात्म में स्व में ही निज शक्तिरूप षट्कारक हों, तभी वस्तु पूर्ण स्वतंत्र एवं स्वावलम्बी हो सकती है। सिद्धान्त रूप में भी जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तु की स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा स्वतंत्र अस्तित्व की उद्घोषणा कर परचतुष्टय का उसमें नास्तित्व बतलाया है। तात्पर्य यह है कि - प्रत्येक वस्तु का जितना भी 'स्व' है, वह स्व के अस्तित्वमय है। उसमें पर के अस्तित्व का अभाव है। सजातीय या विजातीय कोई भी वस्तु अपने से भिन्न स्वरूप सत्ता रखनेवाली किसी भी अन्य वस्तु की सीमा को लांघ कर उसमें प्रवेश नहीं कर सकती; क्योंकि दोनों के बीच अत्यन्ताभाव की बज्र की दीवाल है, जिसे भेदना संभव नहीं है। इसी तथ्य का उद्घाटन आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में किया है - जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि ण संकमे दव्वे। सो अण्णमसंकत्तो कह तं परिणाम स दव्वं ।।१०३ ।। जो वस्तु विशेष जिस द्रव्य या गुण में हैं, वह अन्य द्रव्य या गुण रूप में 3
SR No.008379
Book TitleShatkarak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size126 KB
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