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कर्तृत्व भार से शून्य शोभायमान,
पूर्ण निर्भार मगन आनन्द स्वभाव में ।।४९।। निजपरपरिणति जानकार जीव यह,
परपरिणति को करता कभी नहीं। निजपरपरिणति अजानकार पुद्गल,
परपरिणति को करता कभी नहीं।। नित्य अत्यन्त भेद जीव-पुद्गल में,
करता-करमभाव उनमें बने नहीं, ऐसो भेदज्ञान जबतक प्रगटे नहीं,
करता-करम की प्रवृत्ती मिटे नहीं ।।५०।।
‘पर को करूं मैं'- यह अहं अत्यन्त ही दुर्वार है। यह है अखण्ड अनादि से जीवन हुआ दुःस्वार है।। भूतार्थनय के ग्रहण से यदि प्रलय को यह प्राप्त हो। तो ज्ञान के घनपिण्ड आतम को कभी न बंध हो।।५५।।
(दोहा) परभावों को पर करे आतम आतमभाव । आप आपके भाव हैं पर के हैं परभाव ।।५६।।
(कुण्डलिया) नाज सम्मिलित घास को, ज्यों खावे गजराज । भिन्न स्वाद जाने नहीं, समझे मीठी घास ।।
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(हरिगीत) कर्ता वही जो परिणमे परिणाम ही बस कर्म है। है परिणति ही क्रिया बस तीनों अभिन्न अखण्ड हैं ।।५१।। अनेक होकर एक है हो परिणमित बस एक ही। परिणाम हो बस एक का हो परिणति बस एक की ।।५२।। परिणाम दो का एक ना मिलकर नहीं दो परिणमे । परिणति दो की एक ना बस क्योंकि दोनों भिन्न हैं ।।५३।। कर्ता नहीं दो एक के हों एक के दो कर्म ना। ना दो क्रियायें एक की हों क्योंकि एक अनेक ना ।।५४।।
--------- समझे मीठी घास नाज को न पहिचाने । त्यों अज्ञानी जीव निजातम स्वाद न जाने ।। पुण्य-पाप में धार एकता शून्य हिया है। अरे शिखरणी पी मानो गो दूध पिया है।।५७।।
(हरिगीत) अज्ञान से ही भागते मृग रेत को जल मानकर । अज्ञान से ही डरें तम में रस्सी विषधर मानकर ।। ज्ञानमय है जीव पर अज्ञान के कारण अहो । वातोद्वेलित उदधिवत कर्ता बने आकुलित हो।।५८।। दूध जल में भेद जाने ज्ञान से बस हंस ज्यों। सद्ज्ञान से अपना-पराया भेद जाने जीव त्यों ।।
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