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कर्ता-भोक्ता में अभेद हो युक्तिवश से,
भले भेद हो अथवा दोनों ही न होवें। ज्यों मणियों की माला भेदी नहीं जा सके,
त्यों अभेद आतम का अनुभव हमें सदा हो ।।२०९ ।।
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अरे जैन होकर भी सांख्यों के समान ही,
इस आतम को सदा अकर्त्ता तुम मत जानो। भेदज्ञान के पूर्व राग का कर्ता आतम;
भेदज्ञान होने पर सदा अकर्ता जानो ।।२०५।। जो कर्ता वह नहीं भोगता इस जगती में,
ऐसा कहते कोई आतमा क्षणिक मानकर । नित्यरूप से सदा प्रकाशित स्वयं आतमा,
मानो उनका मोह निवारण स्वयं कर रहा ।।२०६।।
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(दोहा) अरे मात्र व्यवहार से कर्मरु कर्ता भिन्न । निश्चयनय से देखिये दोनों सदा अभिन्न ।।२१०।।
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(१०)
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(सोरठा) वृत्तिमान हो नष्ट, वृत्त्यंशों के भेद से। कर्ता भोक्ता भिन्न; इस भय से मानो नहीं ।।२०७।।
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अरे कभी होता नहीं कर्ता के बिन कर्म । निश्चय से परिणाम ही परिणामी का कर्म ।। सदा बदलता ही रहे यह परिणामी द्रव्य । एकरूप रहती नहीं वस्तु की थिति नित्य ।।२११।।
(रोला) यद्यपि आतमराम शक्तियों से है शोभित ।
और लोटता बाहर-बाहर परद्रव्यों के।। पर प्रवेश पा नहीं सकेगा उन द्रव्यों में।
फिर भी आकुल-व्याकुल होकर क्लेशपा रहा ।।२१२।।
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(रोला) यह आतम है क्षणिक क्योंकि यह परमशुद्ध है।
जहाँ काल की भी उपाधि की नहीं अशुद्धि ।। इसी धारणा से छूटा त्यों नित्य आतमा ।
ज्यों डोरा बिन मुक्तामणि से हार न बनता ।।२०८।।
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