________________
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
(हरिगीत) निज आतमा ही करे सबकुछ मानते अज्ञान से। हों यद्यपि वे मुमुक्षु पर रहित आतमज्ञान से ।। अध्ययन करें चारित्र पालें और भक्ति करें पर । लौकिकजनों वत उन्हें भी तो मुक्ति की प्राप्ति न हो ।।१९९।।
-
-
अरे कार्य कर्ता के बिना नहीं हो सकता,
भावकर्म भी एक कार्य है सब जग जाने। और पौद्गलिक प्रकृति सदा ही रही अचेतन;
वह कैसे कर सकती चेतन भावकर्म को ।। प्रकृति-जीव दोनों ही मिलकर उसे करें यदि,
तो फिर दोनों मिलकर ही फल क्यों ना भोगे? भावकर्म तो चेतन का ही करे अनुसरण,
इसकारण यह जीव कहा है उनका कर्ता ।।२०३।।
-
-
-
-
-
(दोहा) जब कोई संबंध ना पर अर आतम मांहि । तब कर्ता परद्रव्य का किसविध आत्म कहाँहि ।।२०।।
(९८)
(१००)
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
----_
-
-
-
-
(रोला) जब कोई संबंध नहीं है दो द्रव्यों में,
तब फिर कर्ताकर्मभाव भी कैसे होगा? इसीलिए तो मैं कहता हूँ निज को जानो;
सदा अकर्ता अरे जगतजन अरे मुनिजन ।।२०१।। इस स्वभाव के सहज नियम जो नहीं जानते,
अरे विचारे वे तो डूबे भवसागर में। विविध कर्म को करते हैं बस इसीलिए वे,
भावकर्म के कर्ता होते अन्य कोई ना ।।२०२।।
कोई कर्ता मान कर्म को भावकर्म का,
आतम का कर्तृत्व उड़ाकर अरे सर्वथा। और कथंचित् कर्ता आतम कहनेवाली;
स्याद्वादमय जिनवाणी को कोपित करते ।। उन्हीं मोहमोहितमतिवाले अल्पज्ञों के,
संबोधन के लिए सहेतुक स्याद्वादमय । वस्तु का स्वरूप समझाते अरे भव्यजन,
अब आगे की गाथाओं में कुन्दकुन्द मुनि ।।२०४।।
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-----___(९९)
--
-------- (१०१)----