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________________ ७८ समयसार तो परभाव के त्याग के कर्तृत्व का नाम अपने को नहीं है; क्योंकि स्वयं तो ज्ञानस्वभाव से च्युत नहीं हुआ है। इसलिए प्रत्याख्यान ज्ञान ही है - ऐसा अनुभव करना चाहिए।" अब इसी बात को दृष्टान्त के माध्यम से स्पष्ट करते हैं - यथा हि कश्चित्पुरुषःसंभ्रांत्यारजकात्परकीयंचीवरमादायात्मीयप्रतिपत्त्या परिधाय शयानः स्वयमज्ञानी सन्नन्येन तदंचलमालंब्य बलान्नग्नीक्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वार्पय परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नः सुष्टु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति ज्ञात्वा ज्ञानी सन्मुंचति तच्चीवरमचिरात्, तथा ज्ञातापि संभ्रांत्या परकीयान्भावानादायात्मीयप्रतिपत्त्यात्मन्यध्यास्य शयान: स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभावविवेकं कृत्वैकीक्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वैकः खल्वयमात्मेत्यसकृच्छ्रौतं वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चितैः सुष्टु परीक्ष्य निश्चितमेते परभावा इति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुंचति सर्वान्परभावानचिरात् ।।३४-३५ ।। इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जिसप्रकार कोई पुरुष धोबी के घर से भ्रमवश दूसरे का वस्त्र लाकर, उसे अपना समझकर ओढ़कर सो रहा है और अपने आप ही अज्ञानी हो रहा है; किन्तु जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्र का छोर पकड़कर खींचता है, उसे नंगा कर कहता है कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदले में आ गया है; अत: मुझे दे दें' - तब बारम्बार कहे गये इस वाक्य को सुनता हुआ उस वस्त्र की सर्वचिह्नों से भली-भाँति परीक्षा करके 'अवश्य यह वस्त्र दूसरे का ही है' - ऐसा जानकर ज्ञानी होता हुआ उस वस्त्र को शीघ्र ही त्याग देता है। इसीप्रकार आत्मा भी भ्रमवश परद्रव्य के भावों को ग्रहण करके, उन्हें अपना जानकर, अपना मानकर, अपने में एकरूप करके सो रहा है और अपने आप अज्ञानी हो रहा है। किन्तु जब श्रीगुरु परभाव का विवेक करके, भेदज्ञान करके; उसे एक आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा एक ज्ञानमात्र ही है, अन्य सब परद्रव्य के भाव हैं'; तब बारम्बार कहे गये इस आगम वाक्य को सुनता हुआ वह समस्त स्वपर के चिह्नों से भली-भाँति परीक्षा करके, 'अवश्य ये भाव परभाव ही हैं, मैं तो एक ज्ञानमात्र ही हूँ' - यह जानकर ज्ञानी होता हुआ सर्व परभावों को तत्काल ही छोड़ देता है।" उक्त सम्पूर्ण कथन में एक बात पर विशेष बल दिया जा रहा है कि जिसप्रकार यह पता चलते ही कि 'यह वस्त्र मेरा नहीं है तत्काल ही त्यागभाव आ जाता है; जानने, पहिचानने और त्यागभाव आने में समयभेद नहीं है, तीनों एक काल में ही होते हैं; उसीप्रकार परपदार्थों और उनके भावों को जब पररूप जानते हैं तो उसी समय उनसे अपनापन टूट जाता है और उनके त्याग का भाव आ जाता है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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