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________________ पूर्वरंग ७७ "" " इसप्रकार यह अज्ञानीजीव अनादिकालीन मोह की संतान से निरूपित आत्मा और शरीर के एकत्व के संस्कार से अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था; अब वह तत्त्वज्ञानरूप ज्योति के प्रगट उदय होने से नेत्र के विकार की भाँति पटलरूप आवरणकर्मों के भलीभाँति उघड़ जाने से प्रतिबुद्ध हो गया और अपने आपको स्वयं से ही साक्षात् दृष्टा जानकर, श्रद्धानकर, उसी का आचरण करने का इच्छुक होता हुआ पूछता है कि इस आत्मा को अन्य द्रव्यों का प्रत्याख्यान क्या है? इसी प्रश्न के उत्तर में आचार्यदेव ने ३४वीं गाथा लिखी है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुदव्वं ||३४|| जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदं चयदि । तह सव्वे परभावे णाऊण विमुञ्चदे णाणी ।। ३५ ।। सर्वान् भावान् यस्मात्प्रत्याख्याति परानिति ज्ञात्वा । तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यम् ।। ३४ ।। - यथा नाम कोऽपि पुरुष: परद्रव्यमिदमिति ज्ञात्वा त्यजति । तथा सर्वान् परभावान् ज्ञात्वा विमुंचति ज्ञानी ।। ३५ । । यतो हि द्रव्यांतरस्वभावभाविनोऽन्यानखिलानपि भावान् भगवज्ज्ञातृद्रव्यं स्वस्वभावभावाव्याप्यतया परत्वेन ज्ञात्वा प्रत्याचष्टे, ततो य एव पूर्वं जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्टे न पुनरन्य इत्यात्मनि निश्चित्य प्रत्याख्यानसमये प्रत्याख्येयोपाधिमात्रप्रवर्तितकर्तृत्वव्यपदेशत्वेऽपि परमार्थेनाव्यपदेश्यज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात्प्रत्याख्यानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयम् । अथ ज्ञातुः प्रत्याख्याने को दृष्टान्त इत्यत आह ( हरिगीत ) परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे । तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है ।। ३४ ।। जिसतरह कोई पुरुष पर जानकर पर परित्यजे । बस उसतरह पर जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे ।। ३५ ।। जिसकारण यह आत्मा अपने आत्मा से भिन्न समस्त पर - पदार्थों का 'वे पर हैं' - ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, त्याग करता है; उसी कारण प्रत्याख्यान ज्ञान ही है । ऐसा नियम से जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि अपने ज्ञान में त्यागरूप अवस्था होना ही प्रत्याख्यान है, त्याग है; अन्य कुछ नहीं । जिसप्रकार लोक में कोई पुरुष परवस्तु को 'यह परवस्तु है' - ऐसा जानकर परवस्तु का त्याग करता है; उसीप्रकार ज्ञानी पुरुष समस्त परद्रव्यों के भावों को 'ये परभाव हैं' - ऐसा जानकर छोड़ देते हैं। इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है "यह ज्ञाता - दृष्टा भगवान आत्मा अन्यद्रव्यों के स्वभाव से होनेवाले अन्य समस्त परभावों को, अपने स्वभावभाव व्याप्त न होने के कारण पररूप जानकर त्याग देता है; इसलिए यह सिद्ध हुआ कि जो पहले जानता है, वही बाद में त्याग करता है; अन्य कोई त्याग करनेवाला नहीं है । - इसप्रकार आत्मा में निश्चय करके प्रत्याख्यान के समय प्रत्याख्यान करने योग्य परभाव की उपाधिमात्र से प्रवर्तमान त्याग के कर्तृत्व का नाम होने पर भी परमार्थ से देखा जाय
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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