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पूर्वरंग
यह बात अलग है कि तत्काल उस वस्त्र को वह व्यक्ति छोड़ न पाये; क्योंकि जबतक दूसरे वस्त्र की व्यवस्था न हो जाये, तबतक लाज की सुरक्षा के लिए कदाचित् उसे ओढ़े रहना पड़े तो भी उसमें से अपनापन टूट जाता है, त्यागभाव आ जाता है। उसीप्रकार रागादि भावों को पर जान लेने पर भी कुछ कालतक रागादिभावों का संयोग देखा जा सकता है, पर उनसे अपनापन पूरी तरह टूट जाता है। जब अपनापन छूट गया तो एक दिन वे भी अवश्य छूट जायेंगे।
हाँ, एक बात यह भी तो है कि उनसे अपनापन टूटते ही अनन्तानुबंधी सम्बन्धी राग भी नियम से छूट जाता है; क्योंकि मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबंधी कषाय भी जाती ही है। अत: यह सुनिश्चित
(मालिनी) अवतरति न यावद् व ति म त्य त व गा - दन-वम-परभाव-त्याग-दृष्टांतदृष्टिा झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता
स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ।।२९।। अथ कथमनुभूते: परभावविवेको भूत इत्याशंक्य भावकभावविवेकप्रकारमाह - __णत्थिममको विमोहोबुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।।३६।।
नास्ति मम कोऽपि मोहो बुध्यते उपयोग एवाहमेकः।
तं मोहनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति ।।३६।। ही है कि श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र की शुद्धि एक साथ ही आरम्भ होती है। इनकी पूर्णता में कालभेद हो सकता है; पर आरम्भ में, उत्पत्ति में कालभेद नहीं होता। ___ अब आचार्य अमृतचन्द्र कलशकाव्य के रूप में कहते हैं कि दृष्टान्त द्वारा जो यह बात समझाई गई है, उसका प्रभाव क्षीण होने के पहले ही आत्मानुभव प्रगट हो जाता है, हो जाना चाहिए। उग्र पुरुषार्थ से आत्मानुभव करने की प्रेरणा देनेवाले कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) परभाव के परित्याग की दृष्टि पुरानी ना पड़े। अर जबतलक हे आत्मन् वृत्ति न हो अतिबलवती ।। व्यतिरिक्त जोपरभाव सेवह आतमा अतिशीघ्र ही।
अनुभूति में उतरा अरे चैतन्यमय वह स्वयं ही ॥२९॥ जबतक वृत्ति अत्यन्त वेग से प्रवृत्ति को प्राप्त न हो, अवतरित न हो और परभाव के त्याग के दृष्टान्त की दृष्टि पुरानी न पड़े, फीकी न हो जाये; उसके पहले ही सम्पूर्ण अन्यभावों से रहित आत्मा की यह अनुभूति तत्काल स्वयं ही प्रगट हो गई।
यहाँ परभाव का त्याग कैसे होता है, आत्मानुभूति प्रगट कैसे होती है - इस बात को आचार्यदेव ने दृष्टान्त देकर बहुत ही अच्छी तरह समझाया है।