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समयसार आत्मख्याति टीका के आरंभ में भी मंगलाचरण के उपरान्त तीसरे कलश में आचार्यदेव ने एक भावना भायी थी कि इस समयसार ग्रन्थराज की टीका करने से मेरी अनुभव रूप परिणति की परम
(उपजाति) स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वैर्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैःा
स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचंद्रसूरेः ।।२७८।। विशुद्धि हो। अब अन्त में टीका की निर्विघ्न समाप्ति पर मानो वे कह रहे हैं कि मेरा काम हो गया है; जो भावना मैंने भायी थी, अब वह पूर्ण हो रही है। ___ अब सर्वान्त में टीका के कर्तृत्व के संबंध में वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हैं, कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) ज्यों शब्द अपनी शक्ति से ही तत्त्व प्रतिपादन करें। त्यों समय की यह व्याख्या भी उन्हीं शब्दों ने करी॥ निजरूप में ही गुप्त अमृतचन्द्र श्री आचार्य का।
इस आत्मख्याति में अरे कुछ भी नहीं कर्तृत्व है ।।२७८॥ जिन शब्दों ने अपनी शक्ति से ही वस्तुतत्त्व का भलीभाँति प्रतिपादन किया है; उन शब्दों ने ही समयसार ग्रन्थाधिराज की यह आत्मख्याति नाम की व्याख्या (टीका) की है अथवा समयसाररूप आत्मा का व्याख्यान किया है। अपने स्वरूप में ही गुप्त सुस्थित आचार्य अमृतचन्द्र का इसमें कुछ भी कर्तव्य (कर्तृत्व) नहीं है। तात्पर्य यह है कि यह आत्मख्याति टीका शब्दों द्वारा ही हुई है, आचार्य अमृतचन्द्र ने इसमें कुछ भी नहीं किया है।
देखो, आचार्य अमृतचन्द्र ने यहाँ एक शब्द में अपना परिचय दिया है, एक उपाधि स्वयं ने स्वयं को दी है; वह है - स्वरूपगुप्त । वे अपने को स्वरूपगुप्त ही मानते हैं, स्वीकार करते हैं। इससे अधिक कुछ नहीं।
कुछ लोग कहते हैं कि यह तो उन्होंने अपनी निरभिमानता प्रगट की है; पर भाई ! यह मात्र निरभिमानता प्रगट करने की औपचारिकता नहीं है, अपितु वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन है।
यह उनके अन्तर की बात है। क्योंकि उनका अपनापन त्रिकाली ध्रव भगवान आत्मा में ही है और वे अपना वास्तविक कार्य तो स्वरूप में गुप्त रहना ही मानते हैं। अत: वे अन्तर की गहराई से कह रहे हैं कि अरे भाई ! आत्मख्याति टीका स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र का कार्य कैसे हो सकती है ? यह तो शब्दों का कार्य है। शब्दों में वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन की शक्ति है। इसमें स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र का कोई कर्तृत्व नहीं है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि न सही उपादान, पर वे इसके निमित्तकर्ता तो हैं ही; पर भाई साहब! स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र निमित्त भी नहीं हैं; क्योंकि निमित्त उनका राग है, विकल्प है, योग-उपयोग है और स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र में ये कुछ भी नहीं आते। वे तो अपने को इनसे भिन्न स्वरूपगुप्त